राष्ट्र का विजयगान

तरुण विजय राज्यसभा सांसद, भाजपा दुनिया के इतिहास में ऐसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं कि देश के लिए पिता वारे, दो नन्हें बच्चों को वारा, शुद्धता के प्रतीक खालसा पंथ की सर्जना की और देश को अद्भुत विजयगान दिया- देहु शिवा वर मोहे इहै। शुभ करमन ते कबहुं न टरौं।। न डरौं अरि सौं जब […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 6, 2017 6:25 AM
तरुण विजय
राज्यसभा सांसद, भाजपा
दुनिया के इतिहास में ऐसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं कि देश के लिए पिता वारे, दो नन्हें बच्चों को वारा, शुद्धता के प्रतीक खालसा पंथ की सर्जना की और देश को अद्भुत विजयगान दिया-
देहु शिवा वर मोहे इहै। शुभ करमन ते कबहुं न टरौं।।
न डरौं अरि सौं जब जाहि लरौं। निश्चै कर अपनी जीत करौं।। (दशम ग्रंथ)
गुरु गोबिंद सिंह के पिता सच्चे पातशाह गुरु तेग बहादुर साहब भारत के ऐसे एकमात्र महापुरुष हुए, जिन्हें ‘हिंद की चादर’ कहा गया. वे पंजाब की चादर नहीं थे, पंथ, भाषा, क्षेत्र या अपने शिष्याें मात्र के लिए रक्षक ‘चादर’ नहीं थे. वे सारे हिंदुस्तान की चादर थे, सारे भारतवर्ष के रक्षक थे.
ऐसी महिमा वाले पिता की संतान गोबिंद राय (गोबिंद सिंह जी के बालकाल का नाम) ने जब कश्मीरी पंडितों का आर्तनाद सुना, जुल्म-अत्याचार के शिकार कश्मीरी हिंदू जब गुरु तेगबहादुर साहब के पास प्राणरक्षा की गुहार लेकर आये, तो सच्चे पातशाह ने कहा था- आपकी रक्षा के लिए किसी महापुरुष को अपना बलिदान देना होगा. इस पर नन्हा गोबिंद राय बोल उठा- ‘हे सच्चे पातशाह, आपसे बढ़ कर महापुरुष और कौन होगा?’
मालूम था कि पिता का बलिदान होगा, फिर भी देश, धर्म और जन की रक्षा के लिए पिता का आवाहन करनेवाले गाेबिंद राय की बात सुन कर गुरु तेग बहादुर जी ने उनको गले से लगा लिया. कश्मीरी पंडितों को अभय किया तथा अपना बलिदान देकर समाज की रक्षा की. मुझे तो कई बार लगता है कि यदि भारत के हर घर और मंदिर में कोई चित्र अनिवार्यरूप से होना चाहिए, तो वे चित्र होंगे- गुरु तेग बहादुर साहब और गुरु गोबिंद सिंह जी के.
पराक्रमी, अद्भुत बलिदानी परंपरा और राष्ट्रीय एकता के गौरव-प्रतीक गुरु गोबिंद सिंह साहब का एक ही वाक्य मुर्दों में जान फूंक देता है और राष्ट्र को नयी शक्ति देता है- ‘सवा लाख से एक लड़ाऊं, तां मैं गुरु गोबिंद कहाऊं.’
क्या गजब का आत्मविश्वास और सदा विजयी रहने का बल इस एक ललकार में छिपा है. जहां सच्चाई है, नैतिकता है, जन-बल है. जहां धर्म है- वहां विजय होनी ही होनी है. चाहे फिर सारी दुनिया की ताकत विपरीत क्यों न हो- जीतूंगा मैं ही, विजय हमारी ही होगी.
यह एक वाक्य गुरु गाेबिंद सिंह जी की बानी हमारे राष्ट्र का मंत्र बन गया है. सवा लाख से एक लड़ाऊं- यह स्वयं में शक्ति का संपुट, हिम्मत का हिमालय और जागरण का जयगान है.
उनकी दशम ग्रंथ की बानी- ‘निश्चै कर अपनी जीत करौं’ तो हमारा मानो राष्ट्रीय युवा गीत बना है, जिसे सुन कर धमनियों में रक्त हिलोरें लेने लगता है और शुभ, मंगलकारी विचारों का आदर्श सामने उभर अाता है. उन्हें मानवीय शक्ति की सीमाओं और दुर्बलताओं का भान था. इसलिए कहा, ‘गुरु मान्यो ग्रंथ’, श्री गुरु ग्रंथ साहिब को गुरु स्थान में प्रतिष्ठित कर देश के विभिन्न भागों, जातियों, वर्णों के प्रतिनिधि पांच श्रेष्ठ महानुभावों को पंज-प्यारे के रूप में स्थान देकर खालसा पंथ की सर्जना की. अद्भुत, असाधारण, अभूतपूर्व. भाई दया सिंह (लाहौर से), भाई धरम सिंह (हस्तिनापुर, उत्तर प्रदेश से), भाई हिम्मत सिंह (उड़ीसा से), भाई मोहकम सिंह (द्वारका, गुजरात से) और भाई साहिब सिंह (कर्नाटक से). क्या अद्भुत महान दृष्टि थी, क्या राष्ट्रीय एकता का भान था, क्या सब समाज को साथ में लेकर आगे ही बढ़ते जानेवाला जुझारुपन था! यह अन्यत्र दुलर्भ है.
खालसा पंथ की सर्जना कर गुरु गोबिंद सिंह जी ने देश, धर्म और समाज की रक्षा की. वे भारत की रक्षक भुजा बन गये. मैं समझता हूं कि आज यदि भारत दुनिया का सबसे युवा देश है, तो उस युवा देश के युवाओं का आदर्श यदि कोई हो सकता है, होना चाहिए, तो वह आदर्श दशम गुरु गोबिंद सिंह जी का ही है. जरा देखिये, उनकी जीवन कथा किस प्रकार हमारा राष्ट्र-गीत बन गयी है.
पटना साहिब में जन्मे, कश्मीर से लेकर दक्षिण तक के भारतीयों की रक्षा की, हर जाति-वर्ण को एक सूत्र में पिरोया, उनकी सभी रचनाएं ब्रज भाषा में थीं, अत्याचारी शासकों, आक्रमणकारियों के विरुद्ध देश के जन-जन को सैनिक बनाया और शस्त्र के साथ शास्त्र, संत के साथ सिपाही की अद्भुत कल्पना सामने रख कर राष्ट्र और धर्म को जोड़ा. यदि राष्ट्र धर्म के कोई सच्चे जनक हैं, तो वे सच्चे पातशाह, दशम गुरु गोबिंद सिंह जी साहब ही हैं. जरा सोचिये, संत-सिपाही, राष्ट्र धर्म के लिए युद्ध भी कर रहे हैं और आध्यात्मिक साधना भी. दोनों अलग नहीं हो सकते. अध्यात्म का अर्थ अपने लिए गिरि-कंदराओं में तपस्या करना नहीं हो सकता. अध्यात्म का अर्थ है- जन-कल्याण, जन-रक्षा, जन-सेवा, जन-संगठन.
आज देश जिन चुनौतियों से गुजर रहा है, उसमें से निखर कर, संवर कर, उभर कर देश गुरु गोबिंद सिंह की बानी से प्रेरित होकर ही आगे बढ़ेगा. कालिमा के दूत गुरु साहेब की ललकार के सामने परास्त होंगे. सवा लाख से एक लड़ाने का साहस लेकर भारत ‘निश्चै कर अपनी जीत करेगा’. यह विश्वास गुरु गोबिंद सिंह के स्मरण से पैदा होता है. यदि उनके पिता हिंद की चादर थे, तो गुरु गोबिंद सिंह जी हिंद की हिम्मत हैं. उन्हें कोटि-कोटि प्रणाम!

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