वीर विनोद छाबड़ा
व्यंग्यकार
बरसों से चली आ रही परंपराओं और प्रथाओं को तोड़ना आसान नहीं है. विद्रोह करिये, घर त्याग दीजिये. कलेजे पर पत्थर रख दीजिये. एक मित्र ने कहा- अपनी पसंद से शादी करूंगा और दहेज नहीं लूंगा. लेकिन माता-पिता, रिश्तेदारों और मित्रों, किसी ने भी उसका साथ नहीं दिया. मुखिया ने डायलॉग झाड़े- रिवाज अंबुजा सीमेंट से बने होते हैं. फेविकोल से जुड़े हैं इसके जोड़.
उस पर त्रासदी यह रही कि प्रेमिका भी पलट गयी. सदियों पुरानी परंपरा छोड़ रहे हो. क्या भरोसा तुम्हारा, कल मुझे छोड़ दो. मित्र का दिल टूट गया. कुछ दिन बाद चिट्ठी आयी कि फलां प्रदेश के फलां शहर के फलां मानसिक चिकित्सालय में भर्ती है आपका बंदा.
घर के बुढ़ऊ मुखिया बोले- ऐसा सुधारवादी हमारे किस काम का. पड़ा रहने दे.
हम अपने मित्र के इस साहस से बहुत प्रभावित हुए. नयी-नयी जवानी थी. सुधारवाद की नयी-नयी हवा लगी थी. इच्छा थी कि हमारे कृत से परिवार में मिसाल कायम हो. हम शांति के पुजारी गांधीजी के पक्के अनुयायी. अच्छा और भरा-पूरा घर परिवार देख कर हमारी शादी तय हुई. अगली पार्टी परंपराओं का बाजे-गाजे से निर्वाह करनेवालों में थी. भरपूर दहेज देने और लेने में यकीन करनेवाले. सिंगल पार्टी रूल था. मुखिया ने दिन को रात कहा तो रात ही कहेंगे. हमें कोई आपत्ति नहीं थी. तैमूर लंग के खानदान से हों या फिर खून-खराबे वाले किसी कबीले के वंशज.
विवाह के एक दिन पूर्व हमने एक शर्त रख दी- हम अपनी होनेवाली पत्नी को एक जोड़े में स्वीकर करेंगे. खानदान में हाहाकार मच गया. दो टुकड़ों में बंट गया. युवा हमारे पक्ष में और बाकी दूसरे पाले में. लेकिन, खुशी की बात यह थी कि बड़ी बहन हमारे संग खड़ी थी.
बात उड़ते-उड़ते लड़की वालों तक पहुंची. उनके मुखिया बौखला गये. हमारे घर आ धमके- देखिये, हम इज्जतदार लोग हैं. सुधारवादी बेटे की सोच गयी तेल लेने. हम परंपरा नहीं तोड़ सकते. आप कहते हैं कि दहेज नहीं लेंगे, लेकिन कल हमें भी तीन बेटों की शादी करनी है.
दहेज नहीं लेना, बिना बैंड-बाजा की बारात, ये सब सिरफिरे सुधारवादियों की बातें हैं. इनका उद्देश्य समाज तोड़ना है.
नतीजा वही हुआ, जो अपेक्षित था. हमें पागल करार देकर रिश्ता तोड़ दिया गया- हमें सिरफिरों के परिवार में लड़की नहीं ब्याहनी. हमारी मां रोने-धोने लगीं- कोई मेरे लाल को डॉक्टर के पास ले जाओ. कहीं, सच में पागल तो नहीं हो गया. मां की सेहत खराब होने लगी. मजबूर होकर हमने आत्मसमर्पण कर दिये. जहां इच्छा हो बांध दो.
नये रिश्ते पर हमने अपने सूत्रों से पता लगा लिया था कि होनेवाली ससुराल समाजवादी है. दहेज में मौसी ने सिलाई मशीन दी है और बुआ की ओर से एक्सरसाइज साइकिल है. चाचा ने कलाई घड़ी और ताऊ ने अंगूठी दी है. डिनर की व्यवस्था ननिहाल वाले कर रहे हैं. बाकी रिश्तेदारों ने भी कुछ-न-कुछ योगदान किया है.
हमारे खानदान में अभी तक अनेक शादियां हुई. लपक-लपक कर लोग घोड़ी चढ़े, लेकिन हमने इस युगों पुरानी परंपरा को तोड़ दिया. घोड़ी पर सवार नहीं हुए. हमारे इशारे पर पशु के विरुद्ध अत्याचार बर्दाश्त नहीं करनेवाले कुछ वालंटियर भी ऐन मौके पर धमकाने आ गए.
बहरहाल, हम विवाह पश्चात पहली बार ससुराल गये. बड़ी आव-भगत हुई. हम सिर्फ एक प्याला चाय पीकर चले आये. ससुराल वालों ने समझा दामादजी नाराज हैं. लेकिन, पत्नी ने उन्हें बताया- सुधारवादी टाइप हैं, बोले तो समाजवादी. थोड़े क्रेक से हैं. नतीजा, अगली बार हमारा स्वागत घटिया किस्म की दालमोठ से हुआ.