सर्दी बहुत बढ़ गयी है!
मिथिलेश कुमार राय युवा रचनाकार देह को जमा देनेवाली बाहर कड़ाके की ठंड पड़ रही है. मैंने सुना. बाहर से इसी तरह की आवाजें आ रही थीं. कोई कह रहा था कि सर्दी बहुत बढ़ गयी है. लग तो कुछ ऐसा ही रहा था, लेकिन मुझे विश्वास नहीं हुआ. मैंने इस बात की तस्दीक करनी […]
मिथिलेश कुमार राय
युवा रचनाकार
देह को जमा देनेवाली बाहर कड़ाके की ठंड पड़ रही है. मैंने सुना. बाहर से इसी तरह की आवाजें आ रही थीं. कोई कह रहा था कि सर्दी बहुत बढ़ गयी है. लग तो कुछ ऐसा ही रहा था, लेकिन मुझे विश्वास नहीं हुआ. मैंने इस बात की तस्दीक करनी चाही. यह बात मैंने एक मजूर से पूछी. वह कुल्हाड़ी से लकड़ी को जलावन का आकार दे रहा था.
बगल में किसी आयोजन की तैयारी चल रही थी शायद. उसने कहा कि ठंड, कैसी ठंड. देखो, पूरे बदन से पसीना चू रहा है. मैं आगे बढ़ा. फिर मैंने जिससे यह सवाल पूछा, वह कुदाल से सड़क को ऊंचाई दे रहा था. कहा कि हवा नरम है, तो थोड़ी सी राहत मिल रही है. धूप पसीना देकर बदन को सिद्ध कर देती है.
मेरा मन नहीं माना. लोग कुछ कह रहे हैं और ये कुछ और ही अलापे जा रहे हैं. अबकी मैं खेतों में उतर गया. मैंने किसान से पूछा, तो वह मुसकुराने लगा. वह गेहूं के नन्हें-नन्हें पौधों की पहली सिंचाई कर रहा था. कहा कि पता नहीं आदमी को रोज-रोज भूख क्यों लगती है. गजब जवाब था. सही जवाब मिल ही नहीं रहा था. खेतों से निकल कर मैं सड़क पर आ गया. दूर से मुझे एक साइकिल सवार आता दिखा. मैंने उससे कुछ पूछना चाहा, लेकिन वह रुका नहीं.
मैंने सोच लिया था कि अब अंतिम बार किसी से पूछूंगा. मैंने देखा कि नदी में कुछ मछुआरे खड़े हैं. जाल को तह लगा रहे उन लोगों से जब मैंने यह पूछा कि क्या ठंड बहुत बढ़ गयी है, तो कहने लगे कि यही इस मौसम की खासियत है कि यह कई-कई चीजों का स्वाद बढ़ा देता है. मैंने वहीं से देखा. दूर कुछ लोग धुएं के पास बैठे थे. मैं उधर बढ़ गया. पास जाकर देखा तो वे लोग घूरे को घेर कर बैठे हुए थे. मैंने पूछा तो उन्होंने एक ओर इशारा करते हुए बताया कि देखो, वे कितनी व्याकुल होकर हरी घास ढूंढ़ रही हैं. मैंने उधर देखा तो पाया कि दर्जन भर गायें दूब को नोच रही थीं.
मैं लौटने लगा, लेकिन बीच रास्ते में ठिठक जाना पड़ा. मेरी दृष्टि की जद में दो बच्चे आ गये थे. वे कूड़े के ढेर से प्लास्टिक बीन रहे थे. मैंने सोचा कि सबसे पूछा, तो बच्चे से भी पूछ ही लूं. मैंने सवाल दोहरा दिया. बच्चों ने एक-दूसरे का मुंह निहारते हुए कहा कि हां-हां, यह हमारे काम का मंदा सीजन है. लेकिन, इस मौसम में दो पैसे ज्यादा मिलने की उम्मीद रहती है.
पता नहीं मेरे सवाल करने का कैसा ढंग था कि मैं पूछता कुछ और था, लेकिन लोग जवाब कुछ और ही दे रहे थे. सुनते आये हैं कि यहां सबके अपने-अपने विचार हैं, जो उन्हीं की परिस्थितियों से निकल कर गाढ़े रूप में फैल जाते हैं. खैर…
मैं घर लौटने से पहले चाय की टपरी के पास रुक कर कुछ देर सुस्ताना चाहता था. मैं जानता था कि मैं कुछ भी नहीं कहूंगा, तब भी वह मुझे चाय का गिलास थमा जायेगा. मैंने सोचा कि जब तक चाय खदकती है, तब तक इनके भी विचार जानने में क्या हर्ज है. मैंने पूछ लिया. उसने बताया कि अभी एक लड़का चाय पीने यहां रुका था. बेचारा भूखा था.
उसे कहीं दूर जाना था. उसके पास पैसे नहीं थे. मुझे तो वह पढ़ा-लिखा और शरीफ लगा. काफी मान-मनोव्वल के बाद चाय पीने और बिस्किट खाने को राजी हुआ. जाते-जाते बोला कि यह उधार रहा. चाय भी, बिस्किट भी और आपका नेह भी. फिर वह किलक कर मुझी से पूछ बैठा, कहो बाबू, दुनिया में कितने अच्छे-अच्छे लोग रहते हैं न!
जाना तो चाहिए था मुझे लोहार के पास भी. तड़के उठ कर अपने अखबारवाले और दूधवाले से भी यही सवाल दोहराना चाहिए था. लेकिन, मैं भी रजाई तान पड़ा रहा और वही सारी बातें सुनता रहा.