पूस की एक और रात
क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार पूस का महीना चल रहा है. इसे पौष भी कहते हैं. पूस का मतलब ही है, कड़कड़ाती ठंड. वह ठंड, जिसमें दांत किटकिटाते हैं. कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखंड में भारी बर्फबारी हो रही है. पूरा उत्तर भारत ठंड से कांप रहा है. पूस है न. अपने जनमानस में इसीलिए पूस को लेकर […]
क्षमा शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
पूस का महीना चल रहा है. इसे पौष भी कहते हैं. पूस का मतलब ही है, कड़कड़ाती ठंड. वह ठंड, जिसमें दांत किटकिटाते हैं. कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखंड में भारी बर्फबारी हो रही है. पूरा उत्तर भारत ठंड से कांप रहा है. पूस है न. अपने जनमानस में इसीलिए पूस को लेकर बहुत सी कहावतें हैं. जैसे कि- पूस घर में घुस. आम बातचीत की भाषा में इन दिनों को चिल्ला जाड़ा भी कहा जाता है. जो चालीस दिन चलता है. मकर संक्रांति भी इन्हीं दिनों पड़ती है.
महान कथाकार प्रेमचंद की अदभुत कहानी है-पूस की रात. इसमें एक गरीब किसान ठंड की रात को अलाव के सहारे काट रहा है. जब ढंड से किसी तरह से निजात नही मिलती, तो वह अपने कुत्ते के साथ अलाव को फांदने लगता है.
आज के हालात में देखें तो भी गरीब के लिए ठंड उतनी ही विपत्ति लेकर आती है, जैसे कि पूस की रात कहानी लिखे जाने के समय में .
देश की राजधानी दिल्ली में ही छियालीस हजार से ज्यादा ऐसे लोग हैं, जिनके पास जाड़े की रात काटने के लिए न कोई छत है, न कोई ठौर-ठिकाना. जब राजधानी और महानगर में ऐसी हालत है तो छोटे नगरों- कसबों में क्या हाल होगा. उनकी तो खबरें भी प्रायः राष्ट्रीय मीडिया में नहीं आतीं. नेताओं की चिंता भी नहीं बनतीं.
अमीरों के लिए सरदी मजेदारी के लिए, तरह-तरह के भोजन, मेवे, सरसों का साग, मक्के की रोटी, तरह-तरह की मिठाई, पकवान जो पांच सिताराओं में मिलते हैं, उन्हें खाने के लिए होती है. पहाड़ों पर बर्फबारी देखने, स्कीइंग करने, रात में नरम बिस्तरों में दुबकने के लिए होती है. याकि समुद्र के किनारे धूप सेकने के लिए . नया साल शुरू होने से पहले ही राग-रंग, खुशियों की महिमा, विदेशी यात्राओं की खबरें और इतनी गायी जाती हैं कि गरीब और बेघर, बिना छत वाले अकसर परिदृश्य से गायब हो जाते हैं. प्रेमचंद ने जब पूस की रात लिखी थी, तब लगता था कि ऐसी गरीबी और सर्दी की परेशानी जैसे मात्र गांवों में पाई जाती है.
और शहर इसके अपवाद होते हैं. जबकि आंकड़े बताते हैं कि गरीब के लिए सर्दी शहर या गांव में, सड़क फुटपाथ पर सोते, टायर जलाकर रात काटते, एक जैसी विपत्तिकारक और भयानक होती है. एक तरफ पर्यावरण वाले, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल आदि इस तरह चीजों को जलाने और धुआं फैलाने को पर्यावरण विनाशक और प्रदूषण फैलाने वाला मानते हैं. लेकिन अगर इन गरीबों को सरदी से बचने के लिए, गरमी पाने के लिए जैसे-तैसे आग तापने के साधन भी छीन लिए जाएं, तो इनका क्या होगा. इतनी ठंड में खुले आसमान के नीचे रात काटने वाले आदमी, औरतें, बच्चे क्या करेंगे.
सच तो यह कि बाहर निकल कर सवेरे के वक्त बाजार जाते वक्त, सड़क के किनारे खड़ी गायें, कुते–बिल्लियां तक थरथराते मिलते हैं. गरीब की तरह इनकी सुध लेनेवाला भी कौन है.
मनुष्य की तो शायद कोई सुन भी ले, कुछ सरकारी और स्व सहायता समूहों की योजनाएं उन तक पहुंच भी जाएं, मगर बेजुबान जानवर अपनी तकलीफ किससे कहें. उनके पास तो आदमी की तरह वोट की ताकत भी नहीं होती कि जो उनकी रक्षा करे, उसे वोट देकर जिता दें और जो उनकी पूछ न करे, उसे हरा दें. मनुष्यवादी दुनिया ने इनको तो हर जगह से बिल्कुल खदेड़ दिया है. इनके लिए भी तो ये रातें पूस की ही रातें हैं. ये भी सर्दी से उतने ही परेशान हैं, जितने आप और हम लेकिन गरीबों की तरह ये भी सिर्फ दूसरों की कृपा पर निर्भर हैं. इनके लिए किसी भी विकास योजना में कोई जगह नहीं है.