बिन बुलाये मेहमान रोहिंग्या
पुष्परंजन ईयू-एशिया न्यूज के नयी दिल्ली संपादक ओखला से लगा कालिंदी कुंज दक्षिणी दिल्ली का वह इलाका है, जहां अमीरों के साथ गरीब मुसलमानों का गुजारा जैसे–तैसे हो जाता है. यही वजह है कि बाहर से आये शरणार्थी मुसलमान यहां ठौर बना लेना सुरक्षित समझते हैं. कालिंदी कुंज पुल से गुजरते हुए जो चंद झुग्गी […]
पुष्परंजन
ईयू-एशिया न्यूज के नयी दिल्ली संपादक
ओखला से लगा कालिंदी कुंज दक्षिणी दिल्ली का वह इलाका है, जहां अमीरों के साथ गरीब मुसलमानों का गुजारा जैसे–तैसे हो जाता है. यही वजह है कि बाहर से आये शरणार्थी मुसलमान यहां ठौर बना लेना सुरक्षित समझते हैं. कालिंदी कुंज पुल से गुजरते हुए जो चंद झुग्गी दिख जाते हैं, उनमें से कुछ रोहिंग्या शरणार्थियों के नये ठिकाने हैं, जहां पांच सौ से अधिक लोग रह रहे हैं. अमेरिकी एनजीओ ‘जकात फाउंडेशन’ ने 11 हजार वर्गफीट की जगह मुहैया करायी है, वहां तने टेंट–तिरपाल रोहिंग्या मुसलमानों के लिए सिर छिपाने की जगह है.
कन्याकुमारी तक का तो नहीं पता, पर कश्मीर में 486 रोहिंग्या मुसलमान म्यांमार और बांग्लादेश से आये 13,400 शरणार्थियों में शामिल हैं. जम्मू–कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने दिसंबर, 2016 में सूबे से बाहर के शरणार्थियों के जो आंकड़े दिये, उससे पता चला कि रोहिंग्या मुसलमानों को जम्मू के ‘बठिंडी का प्लॉट’ नामक कैंप में जगह दी गयी है. हैदराबाद के हफीजबाबा नगर, पहाड़ेशरीफ, बालापुर, मीरमोहिम पहाड़ी, किशनबाग जैसे मुसलिम बहुल इलाके तीन हजार से अधिक रोहिंग्या शरणार्थियों के पनाहगाह हैं. हैदराबाद स्थित सलामा ट्रस्ट ने रोहिंग्या शरणार्थियों की मदद के लिए ‘बीआरआरआरसी’ जैसा महकमा बनाया है.
बर्मा से आये इन बिन बुलाये मेहमानों की कई मुश्किलों में दक्षिणी राज्यों की भाषा भी है. उर्दू और तेलुगू सिखाने में इन्हें हैदराबाद के एनजीओ मदद कर रहे हैं. कन्नड़, मलयालम, तमिल भाषी राज्यों में कुछ इसी तरह की मदद रोहिंग्या शरणार्थियों को दी जा रही है. वर्ष 2016 के आरंभ में अनुमान लगाया गया था कि देश के मुसलिम बहुल इलाकों में पनाह लिये रोहिंग्या शरणार्थी पैंतीस हजार के आसपास हैं. मगर, अब इनकी संख्या पचास हजार पार बतायी जा रही है.
म्यांमार के राखिन प्रांत में रहनेवाले रोंहिग्या मुसलमानों का दमन आज से नहीं, पिछले एक दशक से जारी है, जिसमें दो लाख से अधिक रोहिंग्या मुसलिम बर्मा से पलायन कर चुके हैं. बांग्लादेश से पलायन किये मुसलमानों को पूर्वोत्तर भारत पहले से ही झेल रहा है. अब रोहिंग्या गले आ पड़े हैं.
आबादी उत्पादन में आगे रहनेवाला बांग्लादेश सिर्फ हमारे लिये समस्या की जननी नहीं है, बर्मा, थाइलैंड भी उससे त्रस्त हैं. अराकान की पहाड़ियों में रोहिंग्या मुसलमान कब आकर बसे, इसका कोई निश्चित आधार नहीं मिलता. 1891 में अंगरेजों ने अराकान की पहाड़ियों में जब सर्वे कराया था, तब वहां मुसलमानों की संख्या 58,255 बतायी गयी. ये मुसलमान क्या रोहिंग्या थे? पक्के तौर पर कोई नहीं कहता. पचास के दशक में रोंहिग्या मुसलमानों ने बर्मा से अलग राष्ट्र के लिए उत्तरी अराकान में ‘मुजाहिद पार्टी’ का गठन किया था. आज अराकान की पहाड़ियों में आठ लाख की संख्या में बसे रोहिंग्या मुसलमानों के बारे में म्यांमार सरकार यही दावा करती है कि ये लोग बांग्लादेश से आये हुए शरणार्थी हैं.
बांग्लादेश सरकार ने चिटगांव की पहाड़ियों से लेकर देश के मुख्तलिफ इलाकों में रोहिंग्या मुसलमानों को बसाने में जिस तरह की सक्रियता दिखायी है, वह इस तथ्य को मजबूत करता है कि रोहिंग्या मुसलमानों के पूर्वज बांग्लादेश के निर्माण से पहले, इन क्षेत्रों में रहते थे. बांग्लादेश की विपक्षी नेता बेगम खालिदा जिया के पति जनरल जिया जब बांग्लादेश के शासनाध्यक्ष थे, तब उन पर म्यांमार ने आरोप लगाया था कि वे रोहिंग्या मुसलमानों को भड़का रहे हैं और अलगाववाद को हवा दे रहे हैं.रोहिंग्या मुसलमानों के कारण बर्मा का राखिन प्रांत राजनीतिक रूप से गरम रहा है. राखिन बौद्धों से रोहिंग्या मुसलमानों की अदावत नयी नहीं है.
द्वितीय विश्वयुद्ध से ही दोनों समुदाय आपसी दुश्मनी निकालते रहे हैं, जिसमें हजारों जानें गयी हैं. यूरोपीय संघ और संयुक्त राष्ट्र से अलग, 57 इसलामिक राष्ट्रों का संगठन ‘ओआइसी’ बर्मी मुसलमानों के लिए कुछ वर्षों से चिंतित है. जून, 2012 में बर्मा में हुए दंगे में छह सौ रोहिंग्या मुसलमानों की मौत और बारह सौ के लापता होने को लेकर मक्का में ‘ओआइसी’ ने आपात बैठक की थी. इस शिखर बैठक को बुलानेवाले सऊदी अरब के शाह अब्दुल्ला ने रोहिंग्या मुसलमानों को पांच करोड़ डॉलर की मदद भेजने की घोषणा की थी. पाकिस्तान में जमाते इस्लामी, म्यांमार दूतावास को उड़ा देने की धमकी कई बार दे चुका है. इस पूरे प्रकरण में प्रत्यक्ष भुक्तभोगी भारत रहा है.
आग बर्मा में लगी, लेकिन 2012 मेंं उसकी तपिश मुंबई में तब देखने को मिली, जब इस बात पर उग्र हुए कुछ लोगों ने फसाद किये. वहां हुए दंगे में दो मारे गये और 50 से अधिक घायल हुए. पता नहीं किन कारणों से मोदी सरकार म्यांमार में लोकतंत्र की रहनुमा आंग सान सूची से रोहिंग्या शरणार्थियों के सवाल पर गंभीरता से बात नहीं कर रही है. साक्षी महाराज जैसे सांसद ‘चार बीवी चालीस बच्चे’ का सांप्रदायिक जुमला दाग कर राजनीति की रोटी सेक सकते हैं, मगर म्यांमार से पचास हजार के करीब जो नये ‘बिन बुलाये मेहमान’ इस देश में आ गये, वह उनके लिए गंभीर विषय नहीं है!