सखि, फिर आया चुनाव!
डॉ सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार सखि, यह आज मैं क्या अनहोनी देख रही हूं? मुहल्ले में ये टोपी-कुर्ता-धोतीधारी आज कैसे आन पहुंचे? कहीं चुनाव तो नहीं आ गये हैं? सखि, चिर-प्रतीक्षा के बाद सचमुच ही चुनाव का मौसम फिर आ गया है. नेता-लोगों ने विरहिणी जनता की सुधि लेना शुरू कर दिया है. जनता चाहे […]
डॉ सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
सखि, यह आज मैं क्या अनहोनी देख रही हूं? मुहल्ले में ये टोपी-कुर्ता-धोतीधारी आज कैसे आन पहुंचे? कहीं चुनाव तो नहीं आ गये हैं? सखि, चिर-प्रतीक्षा के बाद सचमुच ही चुनाव का मौसम फिर आ गया है. नेता-लोगों ने विरहिणी जनता की सुधि लेना शुरू कर दिया है. जनता चाहे अथवा न चाहे, वे जनता की सेवा करके ही रहेंगे. वायदे-पर-वायदे किये जा रहे हैं, यह नेता जो हमारे मुहल्ले में सार्वजनिक नल लगवाने का वायदा कर रहा है, तू सोच रही होगी कि इसी के समर्थक तो पहले वाला नल कुछ दिन हुए तोड़ गये थे. इसी प्रकार, दूसरी तरफ वह जो नेता झाड़ू हाथ में लिये गंदगी साफ करते हुए फोटो खिंचवा रहा है, उसी के समर्थक तो कल शाम यहां कचरा फैला कर गये थे! …पर सखि, इसे अन्यथा न ले, निर्माण के लिए विनाश और सफाई के लिए गंदगी आवश्यक बतायी गयी है.
सखि, चुनाव-सभाओं का सिलसिला शुरू हो गया है. स्थान-स्थान पर भाषणवीर भाषण देते दिखायी दे रहे हैं. श्रोताओं को सड़कों पर से जबरदस्ती पकड़-पकड़ कर लाया जा रहा है. कुछ श्रोतागण स्वेच्छा से भी जाते दिखायी दे रहे हैं. उन्हें ज्ञात है कि भाषणों में विपक्षियों को गालियां निकाली जायेंगी और उनके चरित्र के परखचे उड़ाये जायेंगे, सो उसी का आनंद प्राप्त करने हेतु वे चुनाव-सभाओं की ओर अग्रसर हो रहे हैं. गालिब से उलट उनका सदैव यही अनुभव रहा है कि—थी खबर गर्म कि विपक्षी के उड़ेंगे पुर्जे, देखने हम भी गये औ’ तमाशा भी हुआ. उधर, विपक्षियों ने भी पूरी तैयारियां कर रखी हैं. छात्र-छात्राओं, चोर-उचक्कों, जेबकतरों तथा अन्य अनेक किस्म के उत्पातियों को उन्होंने विरोधियों की चुनाव-सभाओं में गड़बड़ी फैलाने के लिए तैयार क्या हुआ है. हे सखि, मुकाबला जोरों का है. देखना है कि जनता की तकदीर का ऊंट किस करवट बैठता है. वह इस दल के द्वारा लूटी जाती है अथवा उस दल के?
सखि, जगह-जगह पर नेता-लोग अशिष्टता की पर्याय हो चुकी अपनी विशिष्ट पोषाक धारण किये वोट की भिक्षा मांगते घूम रहे हैं. बरसात में मेढकों की तरह, न जाने कहां से इतने सारे नेता यकायक ही पैदा हो गये हैं? जिन लोगों को कभी सपने में भी नहीं देखा, वे ही आज अपने को, हमारा सबसे बड़ा सुख-दुःख का साथी कहते घूम रहे हैं. कुछ-एक को अलबत्ता मैं अच्छी तरह जानती हूं. इनमें से एक तो कुछ दिन हुए किसी महिला के गले से सोने की चेन खींचता पकड़ा गया था और दूसरा मोहल्ले की एक युवती का दुपट्टा खींचता पीटा गया था. हे सखि, जीतने के बाद जब ये भारत माता के भी गले की चेन खींचेंगे और दुपट्टा उतारेंगे, तो वह धन्य हो जायेगी.
सखि, एक दिवस का किस्सा सुन. झरोखे पर खड़ी मैं बाहर का नजारा ले रही थी कि तभी पांच-सात चमचा-जनों से घिरा एक बांका छैल आता दिखाई दिया. हाय, क्या भव्य स्वरूप था उसका! सफेद टोपी, कुर्ता और धोती डाटे वह तोंद का धनी कितना सुंदर लग रहा था. मैं तो उसे देखते ही रीझ गयी.
जब मैंने उसे अपनी ही तरफ आते देखा, तो मैं लाज के मारे गड़ने लगी. अभी पूरी नहीं गड़ने पायी थी, कि वह पास आ पहुंचा. जिया धक-धक करने लगा. अपना परिचय देते हुए उसने कहा कि वह भी इस बार चुनाव में खड़ा हो रहा है और कि अपना वोट मैं उसी को दूं. हाय सखि, कितने निर्दयी होते हैं, ये चुनाव में खड़े होनेवाले! तू मत इनकी बातों में आ जाना. पहली ही नजर में ये वोट रूपी दिल का हरण कर लेते हैं. फिर पश्चात्ताप ही हाथ रह जाता है. …सैंया ले गयी रे वोट, तेरी पहली नजर…