चाय चौपाल, झोपड़ी और लाल किला

दीपक कुमार मिश्र प्रभात खबर, भागलपुर अपने देश में राजनीति की आधुनिक परिभाषा है- बात करो समाज सेवा की, लेकिन नजर रखो सत्ता पर. पर अब इसमें थोड़ा और बदलाव दिख रहा है. सत्ता पर नजर रखनी है, लेकिन अब बात समाज सेवा की जगह चाय की करनी है. चाय के चौपाल की करनी है […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 24, 2014 5:54 AM

दीपक कुमार मिश्र

प्रभात खबर, भागलपुर

अपने देश में राजनीति की आधुनिक परिभाषा है- बात करो समाज सेवा की, लेकिन नजर रखो सत्ता पर. पर अब इसमें थोड़ा और बदलाव दिख रहा है. सत्ता पर नजर रखनी है, लेकिन अब बात समाज सेवा की जगह चाय की करनी है.

चाय के चौपाल की करनी है और खाना अचानक किसी गरीब-गुरबे की झोपड़ी में पहुंच कर मांग लेना है. जब कोई राजनीति में कदम रखता है, तो उसकी पहली नजर सांसदी व विधायकी पर रहती है. जब यह सपना पूरा हो जाता है, तब फिर मंत्री पद की दौड़ शुरू होती है. अगर यह भी हसरत पूरी हो जाती है, तब तो मुख्यमंत्री व उसके ऊपर प्रधानमंत्री का पद चाहिए. इन दिनों अपने देश में लाल किले की प्राचीर पर कब्जे के लिए राजनीतिक जंग छिड़ी है.

इसके लिए गंठबंधन की ताकत बढ़ायी जा रही है तथा मोरचों का गठन किया जा रहा है. लाल किला अपने देश में सत्ता का प्रतीक है. इसी किले की प्राचीर पर स्वतंत्रता दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री तिरंगा फहराते हैं. यानी राजनीति का अंतिम लक्ष्य लाल किले की प्राचीर ही है. पहले धरना, प्रदर्शन, आंदोलन व जनसेवा के रास्ते लाल किले तक पहुंचने की जुगत नेता करते थे.

लेकिन अब तो चाय की बात कर, चाय दुकान पर चौपाल लगा कर, झाड़ लेकर, गरीब के घर खाना खा कर-इन्हीं सब के रास्ते लाल किले तक पहुंचने का प्रयास जारी है. धृष्टता क्षमा हो, कई लोग तो यह भी कह रहे हैं कि काश हमारे नेता दारू बेचा करते, तो दारू दुकान पर भी बेवड़े के साथ चौपाल लगती.

चाय दुकान से देश-दुनिया की चर्चा दारू के ठेकों पर कम थोड़े होती है? राजनीति का यह शार्टकर्ट रास्ता कितना लाभदायक होगा, यह तो नहीं पता, लेकिन गांधी बाबा का दांडी मार्च, सवज्ञा आंदोलन से लेकर संपूर्ण क्रांति, आजादी और आजादी के बाद सभी जनहित के प्रयास बेमानी लगते हैं. लाल किले की ओर ताक रहे तीन नेताओं में से एक चौपाल लगाता है, तो दूसरा किसी गरीब के घर अचानक पहुंच कर खाना खाने लगता है, तो तीसरा संसद को सड़क पर उठा कर ले जाने को बेताब है. तीनों का मकसद एक है और वे यह बताने से भी नहीं चूकते कि उन्हीं के हाथ में लाल किले की प्राचीर सुरक्षित है.

आजकल राजनीति में आम आदमी सबसे हॉट केक बना हुआ. जरिया कोई भी हो, लेकिन पहुंचना है आम आदमी के पास. क्योंकि लाल किले तक तो उसी के हाथ को पकड़ कर पहुंचना है. किसी को आम आदमी चाय की दुकान पर दिख रहा है, तो तो किसी को झोपड़ी में. कोई आम आदमी से मुलाकात के लिए सार्वजनिक मैदान में ही सदन चलाना चाह रहा है.

पता नहीं अब नया मोर्चा आम आदमी व लाल किले तक पहुंचने के लिए कौन सा रास्ता अख्तियार करता है? उन्हें नौटंकी में आम आदमी नजर आयेगा या कबड्डी खेल कर? इंतजार कीजिए, अभी बहुत कुछ देखने को मिलेगा. लेकिन अब भी यह कहावत जिंदा है- ‘ओल्ड इज गोल्ड’.

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