उत्तर भारत के तीन राज्यों में रविवार को हुईं चुनावी रैलियों में नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल ने अपने-अपने आक्रामक तेवर दिखाये. राहुल ने कहा, मोदी सत्ता हथियाने के लिए ‘खून की राजनीति’ कर रहे हैं. मोदी ने कांग्रेस को आड़े हाथों लेते हुए उसे ‘भ्रष्टाचार की एबीसीडी’ की संज्ञा दे दी.
उधर, अरविंद केजरीवाल ने दोनों पार्टियों और उनके नेताओं पर आरोप मढ़ा कि वे प्रमुख उद्योगपति मुकेश अंबानी की जेब में रहते हैं. इन संबोधनों के संकेत साफ हैं, 2014 का चुनाव भी पिछले आम चुनावों की तरह ही आरोप-प्रत्यारोपों के आधार पर लड़ा जायेगा. भाषणों के ये तेवर और नेताओं के ऐसे हाव-भाव भारतीय राजनीति के लिए नये नहीं हैं, पिछले कुछ दशकों से हर चुनाव में यही नजारा आम है.
पर हाल के वर्षो में जनआंदोलनों के साथ बढ़ी राजनीतिक-सामाजिक जागरूकता, पारंपरिक एवं सोशल मीडिया का प्रसार, सार्वजनिक जीवन में युवाओं की बढ़ी भागीदारी जैसे कारकों के परिप्रेक्ष्य में चुनावी परिदृश्य बदलने की उम्मीद थी. माना जा रहा था कि 2014 में आर्थिक उदारीकरण के बाद से जनता की बढ़ी परेशानियां, बेलगाम हुई महंगाई, महिलाओं की सुरक्षा, पिछड़े, दलित, आदिवासी समुदायों व अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा, विदेश नीति से जुड़ी चुनौतियां आदि मसलों पर स्वस्थ व सार्थक बहस होगी. लेकिन अफसोस की बात है कि पीएम पद के प्रमुख दावेदार एक-दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ में ही जुटे हैं.
जनहित से जुड़े अहम मसलों पर उन्होंने अब तक कोई ठोस नीतिपरक एजेंडा पेश नहीं किया है. जाहिर है, या तो वे ऐसे मसलों पर बहस से बचने की कोशिश में हैं या फिर उनके पास जनहित के मुद्दों पर कोई दूरदृष्टि या योजना है ही नहीं. विभिन्न विचारधाराओं और नीतियों पर आधारित राजनीतिक दलों का होना मजबूत लोकतंत्र की अनिवार्य शर्त है, पर हिंदुस्तान के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर मेंकेन का यह कथन सही लगता है कि लोकतंत्र में पार्टियां अपनी अधिकांश ऊर्जा यह साबित करने में लगाती हैं कि उनकी विरोधी पार्टियां शासन करने लायक नहीं हैं. चुनाव एक आदर्श मौका होना चाहिए, जहां नीतियां, दृष्टि और सिद्धांत बहस-मुबाहिसे के तराजू पर रखें जायें और जनता अपने विवेक से उचित निर्णय ले.