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गणतंत्र दिवस के बहाने…

प्रमोद जोशी वरिष्ठ पत्रकार पिछले कुछ समय से तमिलनाडु के आयोजन पर लगी अदालती रोक के विरोध में आंदोलन चल रहा था. विरोध इतना तेज था कि वहां की पूरी सरकारी-राजनीतिक व्यवस्था इसके समर्थन में आ गयी. अंततः केंद्र सरकार ने राज्य के अध्यादेश को स्वीकृति दी और जल्लीकट्टू मनाये जाने का रास्ता साफ हो […]

प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
पिछले कुछ समय से तमिलनाडु के आयोजन पर लगी अदालती रोक के विरोध में आंदोलन चल रहा था. विरोध इतना तेज था कि वहां की पूरी सरकारी-राजनीतिक व्यवस्था इसके समर्थन में आ गयी.
अंततः केंद्र सरकार ने राज्य के अध्यादेश को स्वीकृति दी और जल्लीकट्टू मनाये जाने का रास्ता साफ हो गया. जनमत के आगे व्यवस्था को झुकना पड़ा. गणतंत्र दिवस के कुछ दिन पहले संयोग से कुछ ऐसी घटनाएं हो रही हैं, जिनका रिश्ता हमारे लोकतंत्र की बुनियादी धारणाओं से है. हमें उन पर विचार करना चाहिए.
इस आंदोलन का दूसरा पहलू यह है कि तमिलनाडु सरकार अब पशुओं के प्रति क्रूरता रोकने के लिए काम करनेवाली संस्था ‘पेटा’ पर बैन लगाने के लिए कानूनी रास्ते तलाशने लगी है. प्रदर्शनकारियों की मांग है कि इस खेल पर पाबंदी हटा कर ‘पेटा’ पर लगायी जाये. सांस्कृतिक परंपराओं और आधुनिकता के बीच टकराव का यह एक रोचक उदाहरण है.
सांस्कृतिक परंपराओं के इससे मिलते-जुलते दूसरे मामले भी हैं. सती-प्रथा से लेकर बाल-विवाह तक, जो हमें ऊंचे धरातल पर जाकर सोचने की सलाह देते हैं. दुनिया के अनेक देशों में सांड़ों को दौड़ा कर, उनसे भिड़ कर उन्हें मारने के खेल और उत्सव आज भी चलते हैं. कई जगह उन्हें रोका गया है. आधुनिकता और परंपरा के जो अंतर्विरोध हम तमिलनाडु में देख रहे हैं, वही स्पेन की बुलफाइट के साथ भी जुड़े हैं. वहां बुलफाइट रोकी गयी है.
भारत में सर्कस और फिल्मों में पशुओं के इस्तेमाल पर पाबंदी है. इसके साथ जुड़े मानवीय पहलू भी हैं. तमाम सपेरों, भालू नचानेवालों की जीविका खतरे में है. सवाल सांविधानिक व्यवस्था के साथ हमारे रिश्तों का है. साल 1985 में शाहबानो मामले के बाद जनमत के दबाव में सरकार ने उस फैसले के असर को दूर करने के राजनीतिक फैसले किये.
बहरहाल, इस आलेख का विषय पशु-अधिकार नहीं है. भारतीय गणतंत्र है, जिसके स्तंभ हम और आप हैं. भारत के नागरिक, जिनकी जागरूकता हमें आगे ले जा सकती है और पीछे भी. इस बार के गणतंत्र दिवस के आसपास राष्ट्रीय महत्व की कुछ परिघटनाएं और हैं. एक है विमुद्रीकरण की प्रक्रिया, जो दुनिया में पहली बार अपने किस्म की सबसे बड़ी गतिविधि है. इस अनुभव से हम अभी गुजर ही रहे हैं. इसके निहितार्थ क्या हैं, इसमें हमने क्या खोया या क्या पाया, यह भी इस लेख का विषय नहीं है.
हम जो कुछ भी करते हैं, वह दुनिया की सबसे बड़ी गतिविधि होती है, क्योंकि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं.इतिहास के एक खास मोड़ पर हमने लोकतंत्र को अपने लिए अपनाया और खुद को गणतंत्र घोषित किया. विमुद्रीकरण के अलावा एक और परिघटना है पांच राज्यों में चुनाव की तैयारी. चुनावों के मार्फत हम अपने गुण और दोषों दोनों से रूबरू होते हैं. चुनाव वह समय होता है, जब हम अपनी तमाम समस्याओं पर विचार करते हैं. इस विमर्श से कुछ समस्याओं के समाधान मिलते हैं. कुछ समाधान फौरन होते हैं और कुछ में समय लगता है.
ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल को भारत की आजादी को लेकर संदेह था. उन्होंने कहा था, ‘धूर्त, बदमाश, एवं लुटेरों के हाथों में सत्ता चली जायेगी. सभी भारतीय नेता सामर्थ्य में कमजोर और महत्वहीन व्यक्ति होंगे. वे जबान से मीठे और दिल से नासमझ होंगे. सत्ता के लिए वे आपस में ही लड़ मरेंगे और भारत राजनीतिक तू-तू-मैं-मैं में खो जायेगा.’ चर्चिल का यह भी कहना था कि भारत सिर्फ एक भौगोलिक पहचान है. वह कोई एक देश नहीं है, जैसे भूमध्य रेखा कोई देश नहीं है. चर्चिल को ही नहीं, 1947 में काफी लोगों को अंदेशा था किइस देश की व्यवस्था दस साल से ज्यादा चलनेवाली नहीं है. लेकिन, ऐसा नहीं हुआ, पर वैसा भी नहीं हुआ, जैसा गांधी-नेहरू ने कहा था.
हम दावा नहीं कर सकते कि सफल हैं. और यह भी नहीं मानते कि हम पराजित हो गये हैं. अलबत्ता हमारी सफलता या विफलता का श्रेय हमारी राजनीति को जाता है. चुनाव हमें घेर कर रखते हैं और हम चुनावों में घिरे रहते हैं. साल 2014 में भारतीय चुनाव-संचालन की सफलता के इर्द-गिर्द एक सवाल ब्रिटिश पत्रिका ‘इकोनॉमिस्ट’ ने उठाया था. उसका सवाल था कि भारत चुनाव-संचालन में इतना सफल क्यों है? जब इतनी सफलता के साथ वह चुनाव संचालित करता है, तब उसके बाकी काम इतनी सफलता से क्यों नहीं होते? मसलन उसके स्कूल, स्वास्थ्य व्यवस्था, पुलिस वगैरह से लोगों को शिकायत क्यों है? इन सवालों के जवाब हमें और आपको ही देने हैं.
देश का कोई शहर या कस्बा नहीं है, जिसमें सड़कों-चौराहों पर स्कूटर, मोटर साइकिल, ट्रक रोक कर पुलिस वाले वसूली करते नजर न आते हों. जिस रोज यह दृश्य बंद हो जायेगा, देश के दूसरे तबके भी कार्य-कुशल हो जायेंगे. पूरा देश ट्रकों से पांच-दस के नोट लेकर बाहर निकले हाथ देखता है. इससे अपनी व्यवस्था पर हमारा अविश्वास पुष्ट होता है. क्या हम इस अविश्वास को दूर कर पायेंगे? हम सोचते हैं कि इन समस्याओं का समाधान देने कोई देवदूत आयेगा. लेकिन ऐसा होगा नहीं.
चुनाव हमारी जिम्मेवारी का पहला पड़ाव है. जिस काम पर जनता की निगाहें हैं, वहां सरकारी कर्मचारी भी जिम्मेवारी से काम करते हैं. ‘पब्लिक स्क्रूटनी’ वह मंत्र है, जो लोकतंत्र को उसका मतलब देता है. हम सब जब मिल कर सोचने लगते हैं, तब काम को पूरा होते देर नहीं लगती है. लेकिन जब उदासीन हो जाते हैं, तो सब बिखर जाता है. इसमें पत्रकारिता और साहित्य-संस्कृति की भूमिका भी है. लेकिन, क्या हम लोग वह सब कुछ कर पा रहे हैं, जो कुछ किया जा सकता है?
कभी-कभी लगता है कि लोकतंत्र हमें उपहार में मिला है, हमने इसे अर्जित नहीं किया. हम इसकी कीमत नहीं जानते. जादू की छड़ी की तरह कोई चमत्कार नहीं होगा. अगर आप सक्रिय होंगे, तो हालात बदलेंगे. चेन्नई के मरीना बीच पर पिछले कुछ दिनों से वैसा ही जनांदोलन चला, जैसा दिसंबर 2012 में दिल्ली में निर्भया मामले को लेकर चला था. दोनों में विरोध के स्वर थे. केवल विरोध ही लोकतंत्र नहीं है. वह लोकतंत्र का बुनियादी हिस्सा है, पर तभी जब हम अपने लक्ष्य को लेकर एकमत हों.

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