वकालत में फर्जीवाड़ा

काला चोगा पहने हाथ में कानून की मोटी किताब उठाये कचहरी में घूमता-टहलता नजर आनेवाला शख्स सचमुच वकील ही हो, इसकी कोई गारंटी नहीं है. वह इस भेष में कोई ठग भी हो सकता है. दिलचस्प है कि उसकी ठगी सालों-साल बगैर रोक-टोक अदालतों में चलती भी रह सकती है. बात चाहे जितनी हैरतअंगेज लगे, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 24, 2017 6:39 AM
काला चोगा पहने हाथ में कानून की मोटी किताब उठाये कचहरी में घूमता-टहलता नजर आनेवाला शख्स सचमुच वकील ही हो, इसकी कोई गारंटी नहीं है. वह इस भेष में कोई ठग भी हो सकता है. दिलचस्प है कि उसकी ठगी सालों-साल बगैर रोक-टोक अदालतों में चलती भी रह सकती है. बात चाहे जितनी हैरतअंगेज लगे, पर बार काउंसिल ऑफ इंडिया की जांच में यही जानकारी सामने आयी है. काउंसिल अंदरूनी चुनावों के लिए देश की अलग-अलग अदालतों में प्रैक्टिस करनेवाले वकीलों की सूची का सत्यापन कर रहा है. इस प्रक्रिया में काउंसिल ने अनुमान लगाया है कि कम-से-कम 40 फीसदी वकील या तो फर्जी डिग्री के आधार पर अदालत में प्रैक्टिस कर रहे हैं या फिर उन्होंने कानून की कोई शिक्षा कभी हासिल ही नहीं की.
सत्यापन की प्रक्रिया अभी जारी है, इसलिए ठीक-ठीक बता पाना मुश्किल है कि यह फर्जीवाड़ा किस अदालत में कितना बड़ा है. परंतु, इस बात को मात्र यह कह कर नहीं टाला जा सकता है कि काउंसिल ने जब पता लगा ही लिया है, तो फर्जी वकीलों को सिस्टम से बाहर करना भी उसी का काम है. ऐसा कहने का मतलब होगा यह मान लेना कि भ्रष्टाचार लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक उप-उत्पाद की तरह है. सार्वजनिक जीवन में जारी भ्रष्टाचार की तुलना घर में पैदा होनेवाले कूड़े से नहीं की जा सकती है. अदालतों में फर्जी वकीलों का होना हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को भीतर से खोखला कर रहे महारोग का एक संकेत है. देश की जिस सामाजिक-राजनीतिक विसंगति की वजह से फर्जी डाॅक्टर और फर्जी शिक्षकों का वजूद कायम है, उसी ने फर्जी वकीलों को भी पैदा किया है. बीते साल बिहार सरकार ने सख्ती बरती, तो पता चला कि शिक्षकों के नियोजन में भारी गड़बड़ी हुई है और बहुत से शिक्षकों की डिग्री फर्जी है. इसी तरह बीते साल जुलाई महीने में विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के हवाले से खबर आयी कि देश में 57 फीसदी एलोपैथिक डाॅक्टर झोला छाप हैं.
फर्जी डाॅक्टर, शिक्षक या वकील के होना उसी समाज में संभव है, जहां सेवा की गुणवत्ता को नहीं, बल्कि सामाजिक रसूख को किसी भी काम के लिए सबसे जरूरी माना जाता हो. जहां जाति, धर्म, लिंग, भाषा या पारिवारिक धन के सहारे हासिल ताकत को ज्यादातर लोग अपने रोजगार और तरक्की की गारंटी मानेंगे, वह किसी भी कौशल की डिग्री खरीदी जा सकनेवाली एक सुविधा में तब्दील होने को अभिशप्त है. इस बात के स्वीकार करने के बगैर समाधान की राह नहीं निकल सकती है.

Next Article

Exit mobile version