भारत की ना के फायदे
वैश्वीकरण के दौर में सबसे मारक लड़ाइयां युद्ध के मैदान में नहीं, बल्कि व्यापार के अंतरराष्ट्रीय मंचों पर लड़ी जा रही हैं. बम-बारूद की जगह व्यापारिक संधि-समझौतों के दस्तावेजों में दर्ज कुटिल इरादों वाले शब्दों ने ले लिया है. इन शब्दों को पढ़ने-समझने और असर के आकलन में तनिक भी चूक होने का अर्थ है […]
वैश्वीकरण के दौर में सबसे मारक लड़ाइयां युद्ध के मैदान में नहीं, बल्कि व्यापार के अंतरराष्ट्रीय मंचों पर लड़ी जा रही हैं. बम-बारूद की जगह व्यापारिक संधि-समझौतों के दस्तावेजों में दर्ज कुटिल इरादों वाले शब्दों ने ले लिया है.
इन शब्दों को पढ़ने-समझने और असर के आकलन में तनिक भी चूक होने का अर्थ है किसी देश की अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठना, अपने फैसले आप करने की किसी राष्ट्र-राज्य की ताकत का कम होना. वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमण की प्रशंसा की जानी चाहिए कि उनकी अगुवाई में भारत ने सतर्कता बरती और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ताकत के आगे देश की स्वायत्तता को बौना साबित करने की नीयत से रचे गये जाल में फंसने से बच गया. वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की हालिया बैठक के समय कुछ चुनिंदा देशों की बैठक हुई.
इसमें यूरोपीय यूनियन और कनाडा ने एक खास आपसी समझौते को विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के स्तर पर मंजूर कराने की चाल चली. निवेशक और किसी राष्ट्र के बीच किसी मुद्दे पर पैदा विवाद को सुलझाने से संबंधित इस समझौते का नाम इन्वेस्टर- स्टेट डिस्प्यूट सेटलमेंट (आइएसडीएस) है. किसी कंपनी को लगे कि किसी देश ने व्यापार से जुड़ी अपनी नीतियां बदल ली हैं, जिससे उस देश में कंपनी के निवेश को घाटा हो रहा है, तो वह इस समझौते के अंतर्गत अंतरराष्ट्रीय स्तर के पंचायत में भारी-भरकम हर्जाने का दावा ठोक सकती है.
यूरोपीय यूनियन और कनाडा के बीच फिलहाल यह समझौता द्विपक्षीय स्तर का है, डब्ल्यूटीओ के स्तर पर लागू होते ही इसके दायरे में भारत सहित अन्य विकासशील देश भी आ जायेंगे. यह विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था के हक में नहीं है. आखिर कोई देश किसी कंपनी के व्यापारिक हितों को अधिकाधिक लाभ पहुंचाने के नजरिये से अपनी आर्थिक नीतियां क्यों बनाये? किसी राष्ट्र की प्राथमिक जिम्मेवारी अपने नागरिकों के प्रति है या किसी बहुराष्ट्रीय निगम के प्रति? दूसरे, अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद वैश्विक व्यापार के तमाम मंच और उनके इंतजाम के बारे में नये सिरे से सोचने की जरूरत है.
ट्रंप ने राष्ट्रपति बनते ही एशियाई देशों और अमेरिकी कंपनियों के आपसी व्यापार को सहूलियत देनेवाले ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप डील से कदम खींच लिये हैं. ट्रंप का जोर अमेरिकी व्यापार को संरक्षणवादी दौर में ले जाने का है. इसके लिए वे तमाम देशों से द्विपक्षीय व्यापारिक समझौतों की बात कह रहे हैं. पूरे वैश्विक आर्थिक परिदृश्य पर दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के मुखिया ट्रंप की नीति का असर पड़ेगा और व्यापार के वैश्विक मंच अपना असर खोयेंगे. आइएसडीएस को ना कहना देश की अर्थव्यवस्था के दूरगामी फायदों के लिए जरूरी और व्यावहारिक है.