हठीले ट्रंप की नस्लवादी घोषणाएं
पुष्पेश पंत वरिष्ठ स्तंभकार अमेरिका के राष्ट्रप्रति डोनाल्ड अपने विवाद पैदा करनेवाले फैसलों के लिए विख्यात हैं, पर किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि गद्दी संभालते ही वह ताबड़तोड़ ऐसे कदम उठायेंगे, जो विवाद ही नहीं एक विकट राजनयिक संकट भी पैदा कर देंगे. मुसलमान बहुल आबादी वाले सात देशों से आनेवालों के अमेरिका […]
पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
अमेरिका के राष्ट्रप्रति डोनाल्ड अपने विवाद पैदा करनेवाले फैसलों के लिए विख्यात हैं, पर किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि गद्दी संभालते ही वह ताबड़तोड़ ऐसे कदम उठायेंगे, जो विवाद ही नहीं एक विकट राजनयिक संकट भी पैदा कर देंगे. मुसलमान बहुल आबादी वाले सात देशों से आनेवालों के अमेरिका में प्रवेश पर निषेधाज्ञा जारी कर उन्होंने अचानक अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भूचाल सा ला दिया है. उनके आलोचकों को लगता है कि यह खुलेआम ऐसी नस्लवादी सांप्रदायिकता का ‘सरकारी’ ऐलान है, जिसका कोई मेल अमेरिका की जनतांत्रिक उदार परंपरा से नहीं हो सकता. इसीलिए संघीय अदालत के एक न्यायाधीश ने इस कार्यकारी आदेश पर स्थगन आदेश जारी कर दिया है.
यह बात साफ है कि ट्रंप इतनी आसानी से हार माननेवाले नहीं. जिस अटॉर्नी जनरल ने अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को यह निर्देश दिया था कि वह इस गैरकानूनी-असंवैधानिक फरमान का पालन न करें उन्हें बर्खास्त करते ट्रंप ने जरा भी देर नहीं लगायी थी.
अपनी हठीली लड़ाई को वह सर्वोच्च अदालत में निश्चय ही जारी रखेंगे अौर सीनेट में भी. जहां ट्रंप की नस्लवादी-रंगभेदी तुनक मिजाज तानाशाही तेवर वाली नीति-विषयक घोषणाअों का काफी विरोध हो रहा है, वहीं कहीं-कहीं असहमति का हिंसक विस्फोट भी हो चुका है. वास्तव में आज अमेरिका की गोरी ईसाई आबादी का बड़ा हिस्सा इसलाम अौर अश्वेतों के बारे में ट्रंप के विचारों से न सिर्फ सहानुभूति रखता है, बल्कि कमोबेश उनका समर्थन भी करता है. यही बात लिंगभेदी अन्याय, गर्भपात जैसे मुद्दों के बारे में भी लागू होती है. इसी समर्थन की बदौलत वह व्हाॅइट हाउस तक पहुंचे हैं. यह सुझाना नादानी है कि तर्कसंगत बातचीत से उनकी सोच जरा भी बदल सकती है.
कुछ महत्वपूर्ण बातों की तरफ ध्यान देना जरूरी है. वास्तव में यह ‘निषेध’ कुछ ही मुसलमान देशों के खिलाफ है. दुनिया के सबसे बड़ी मुसलमान आबादी वाले देश- इंडोनेशिया, भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया- तो इस वर्जित सूची से बाहर रखे ही गये हैं, कट्टर जिहादियों को समर्थन देनेवाले सउदी अरब का नामोल्लेख भी इसमें नहीं. मध्य एशियाई गणराज्य हों या मिस्र, लीबिया, नाइजीरिया भी नदारद हैं.
एक विश्लेषक ने इसे रेखांकित किया है कि यमन, सूडान, सोमालिया, इराक, सीरिया, अफगानिस्तान आदि हैं, जिनके साथ अमेरिका व्यापार नहीं करता या जहां के संसाधनों पर कब्जा करने में वह पहले ही कामयाब हो चुका है. यह निर्णय कमजोर को दबा कर अपनी दादागिरी की नुमाइश करने का प्रयास ही है.
विडंबना यह है कि जिस वक्त ट्रंप अपने देश को इसलामी आतंकवाद के खतरे से बचाने के लिए इस कदम को जरूरी बतला रहे हैं, उसी घड़ी कनाडा के राष्ट्रपति त्रूदो इन प्रताड़ित-तिरस्कृत शरणार्थियों को स्वदेश आने का निंत्रण दे रहे हैं.
अभी हाल दशकों से अमेरिका के सैनिक संधिमित्र रहे ऑस्ट्रेलिया के साथ मनमुटाव बढ़ानेवाली चर्चा ट्रंप ने की, जब वह उस वचन से मुकरने लगे, जिसमें अोबामा ने करीब ग्यारह सौ शरणार्थियों को स्वीकारने का भरोसा दिया था- बशर्ते जांच के बाद वे अमेरिका की कसौटी पर खरे उतरते हों. इसी मुद्दे पर यूरोपीय मित्रों से भी बहस गरमाती रही है. जर्मनी या फ्रांस सभी को लगता है कि ट्रंप जिस दिशा में अमेरिका को धकेल रहे हैं, वह पूरे विश्व को आत्मघातक कगार की तरफ ही ले जा सकती है.
यहां एक अौर सवाल जायज है. भारत ने क्यों इस विषय में चुप्पी साधी है? क्या अब भी हमारी सरकार यह भरम पाले है कि देर-सबेर पाकिस्तान का नाम भी इस सूची में जुड़ जायेगा अौर अमेरिका एवं पाकिस्तान के बीच ऐसी दरार पैदा होगी, जो भविष्य में पाटी नहीं जा सकेगी? यह याद रखना फायदेमंद होगा कि दक्षिण एशियाई मुसलमान आगंतुकों पर अमेरिकी आव्रजन पहले ही सख्त निगरानी बनाये है. यदि बांग्लादेश को भी संवेदनशील समझा गया, तो कुल मिला कर यह माहौल भारत में भी अप्रिय माहौल बनानेवाला ही सिद्ध होगा.
दुर्भाग्य यह है कि कट्टरपंथी इसलामी उग्रवादी अपनी भड़काऊ हरकतों से बाज नहीं आते दिखायी देते. फ्रांस के विश्व प्रसिद्ध कला संग्रहालय लूव्र में कुल्हाड़ा लेकर घुसनेवाले हमलावर को सिर्फ मानसिक दृष्टि से असंतुलित कर खारिज नहीं किया जा सकता. फ्रांस में ही इसके पहले ट्रक से निर्दोष नागरिकों को कुचल कर अमेरिका को चेतावनी देने के लिए जिस दहशतगर्दी को अंजाम दिया गया, उसके मद्देनजर ट्रंप का राक्षसीकरण आसान नहीं.
हमें इस बात के लिए तैयार रहना चाहिए कि निकट भविष्य में अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में कोई सुधार होनेवाला नहीं है. एक अोर ट्रंप की संकीर्ण असहिष्णु सोच अौर अदूरदर्शी हरकतें राजनयिक शक्ति समीकरणों को अस्थिर करेंगी, तो वहीं दूसरी अोर अमेरिका के आक्रामक तेवर से बौखलाये कट्टरपंथी अप्रत्याशित खून-खराबे को कहीं भी अंजाम दे सकते हैं. इन घटनाअों का प्रभाव भारत में पहले से संकटग्रस्त सांप्रदायिक सद्भाव के लिए अौर विकट चुनौती ही पेश कर सकता है.