सौंदर्य के नये मानक

क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार हाल ही में महाराष्ट्र की पाठय-पुस्तक के बारे में विवाद हुआ था. जिसमें लिखा हुआ था कि बदसूरत और विकलांग लड़कियों की शादी आसानी से नहीं होती. उनसे शादी करने के लिए लड़के वाले ज्यादा दहेज मांगते हैं. कह सकते हैं कि पाठ्य-पुस्तकों में इस तरह की बातें नहीं लिखी जानी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 8, 2017 1:19 AM

क्षमा शर्मा

वरिष्ठ पत्रकार

हाल ही में महाराष्ट्र की पाठय-पुस्तक के बारे में विवाद हुआ था. जिसमें लिखा हुआ था कि बदसूरत और विकलांग लड़कियों की शादी आसानी से नहीं होती. उनसे शादी करने के लिए लड़के वाले ज्यादा दहेज मांगते हैं. कह सकते हैं कि पाठ्य-पुस्तकों में इस तरह की बातें नहीं लिखी जानी चाहिए.

अगर जमीनी स्तर पर देखें, तो ये बातें सही नजर आती हैं. आखिर सौ में से सौ लड़कों से पूछिये, तो उनमें से कौन कुछ कम खूबसूरत और विकलांग लड़कियों से शादी करने को तैयार होता है.

हां, पुराने जमाने में लड़कियों को लड़कों से भले बांध दिया जाता था. लेकिन, अब तो ऐसी खबरें आती हैं कि लड़कियां भी सांवले और बदसूरत लड़कों से शादी करने से मना कर देती हैं. अखबारों के तमाम वैवाहिक विज्ञापन इसकी गवाही भी देते हैं. वहां स्मार्ट, सुंदर, ऊंची आयवाले या सरकारी नौकरी और बहुराष्ट्रीय निगमों में काम करनेवाले लड़के-लड़कियां ही चाहिए.

चैनलों पर बैठ कर जो लोग महाराष्ट्र की पाठय-पुस्तक में लिखी बातों की आलोचना कर रहे थे, वे यह भूल गये कि रात-दिन इन्हीं चैनलों पर हमारे युवाओं को क्रीम, शैम्पू या तमाम तरह के सौंदर्य प्रसाधनों और गोरेपन की क्रीम के विज्ञापनों द्वारा क्या सिखाया जाता है- सिर्फ और सिर्फ सुंदर दिखना और इस सौंदर्य के बहाने किसी लड़की का लड़के की तरफ खिंचा चला आना और लड़के का ऐसी लड़की को सपनों की रानी समझना. सिर्फ चैनल ही क्यों, फिल्मों में भी ऐसे ही हीरो-हीरोइन का बोलबाला है. इन्हीं हीरो-हीरोइन को आजकल हमारे पैंसठ प्रतिशत युवाओं का रोल माॅडल साबित कर दिया गया है. ऐसा क्यों है कि फिल्म इंडस्ट्री में एकाध बिपाशा बसु को छोड़ कर सांवली हीरोइनों की कोई जगह नहीं. समाज में सांवला होने को गुनाह मान लिया गया है.

ग्लैमर की दुनिया से लेकर घर के अंदर किसी सांवले के लिए कोई जगह नहीं. सांवले और काले होने को बदसूरती का पर्याय भी मान लिया गया है. भले ही कहने को हम कहते रहें कि राम और कृष्ण भी सांवले थे. हम उन्हें पूज सकते हैं, मगर उन जैसा रंग नहीं चाहिए. राधा क्यों गोरी मैं क्यों काला गाने में तब के समाज का चलन छिपा है कि अगर लड़का सांवला हो, तो भी चलेगा, मगर घर की बहू गोरी ही होनी चाहिए, जिससे कि आनेवाली संततियां गोरी हो सकें.

आज जीवन और नौकरी में सफलता के नये मानक तय कर दिये गये हैं. शादी के बाजार और नौकरी के बाजार में ये लगभग एक जैसे हैं. मसलन- सुंदर, स्मार्ट, गोरा, लहराते-चमकते बाल, चमकती त्वचा, दूसरे को नीचा दिखाना, खिल्ली उड़ाना, ईर्ष्या, हमेशा दूसरे को पछाड़ने की चाहत आदि.

इन्हें उद्योग ने तय किया है. अपने-अपने उत्पाद को स्त्री मुक्ति और सफल होने के साधन के रूप में जोड़ दिया गया है. जिसके पास ये उत्पाद हैं, जो इनका प्रयोग करता है, वही सफल हो सकता है. इसमें किसी की योग्यता, उसके व्यवहार, उसकी बुद्धि को बिल्कुल भुला दिया गया है. आज होशियारी के मुकाबले इन्हीं तुलनाओं पर खरा उतरना ज्यादा बड़ा और सफलता की निशानी बना दिया गया है.अफसोस यह है कि आज के वक्त में भी पुराने जमाने के बहुत से मानकों को ज्यों-का-त्यों अपना लिया गया है.

समाज में पहले से फैले स्टीरियो टाइप चीजों को अक्सर चुनौती नहीं दी जाती. आज लड़के-लड़कियों का बोलने, रहने, बात करने, चलने आदि का ढंग बाजार, धारावाहिक और फिल्में तय कर रही हैं. इसीलिए दिल्ली से लेकर सुदूर गांवों तक की स्थानीयता खत्म हो रही है. वहां की भाषाएं, बोलियां, खान-पान, रहन-सहन आदि असफलता की निशानी बना दी गयी हैं.

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