प्रभात रंजन
कथाकार
‘अपने यहां, विशेष रूप से हिंदी में, उस तरह का संगठित रंगमंच है ही नहीं, जिसमें नाटककार के एक निश्चित अवयव होने की कल्पना की जा सके.’ हिंदी के प्रसिद्ध नाटककार मोहन राकेश की यह उक्ति अचानक नहीं याद आयी. इन दिनों दिल्ली में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की तरफ से हर साल आयोजित होनेवाला नाट्य महोत्सव ‘भारंगम’ चल रहा है, जिसको भारत में नाटकों के सबसे बड़े उत्सवों में एक माना जाता है.
दशकों पहले हिंदी के एक मौलिक नाटककार मोहन राकेश ने जो सवाल उठाया था वह आज भी वैसे का वैसा टंगा हुआ है कि कुछ नाटककारों को छोड़ दें तो रंगमंच, विशेषकर हिंदी रंगमंच की दुनिया में नाटककार को वैसा महत्व क्यों नहीं दिया जाता है? दूसरे, मौलिक नाटक इतने कम क्यों लिखे जा रहे हैं? हिंदी रंगमंच की दुनिया बहुत विस्तृत है, लेकिन नाटक की दुनिया में नयी रचनाशीलता का स्पेस सिकुड़ता क्यों जा रहा है? बरसों से कमोबेश यही सवाल हर साल किसी पुराने घाव के दर्द की तरह उभर आता है.
हाल के वर्षों में हिंदी के रंगमंच ने साहित्य से दूरी और बढ़ा ली है. किसी जमाने में रणजीत कपूर ने मनोहर श्याम जोशी के अत्यंत दुरूह शिल्प वाले उपन्यास ‘कुरु कुरु स्वाहा’ का नाट्य रूपांतर करके सबको चौंका दिया था.
देवेंद्र राज अंकुर ने तो कहानियों के रंगमंच का एक नया शिल्प ही तैयार किया. आज भी देशभर के हिंदी विभागों में नाटक पढ़ाये जाते हैं, लेकिन साहित्य और नाटकों के रंगमंच के बीच की बढ़ती दूरी स्पष्ट दिखायी देने लगी है. इस बार भी भारंगम में साहित्यिक कृतियों के पुराने नाट्य-रूपांतर ही प्रस्तुत किये जा रहे हैं.
यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि उत्तर भारत में कई प्रमुख नाट्य संस्थाएं हैं, जिनको सरकार के द्वारा करोड़ों रुपये दिये जाते हैं. लेकिन, दुख की बात यह है कि न तो नाटकों में नयापन दिखता है, न ही वैकल्पिक मनोरंजन के रूप में नाटक की वह जगह रह गयी है, जो एक जमाने तक थी.
थिएटर को 1980-90 के दशक तक सिनेमा के समानांतर रख कर देखा जाता था. आज नाटकों को अभिनेता, निर्देशक सिनेमा से जुड़ने के लांचिंग पैड से अधिक रूप में नहीं देखते. इस साल भारंगम में नाटकों से अधिक उसमें बुलाये जानेवाले फिल्म अभिनेताओं की चरचा हो रही है. माना जाने लगा है कि अब दर्शकों के लिए नाटक सिनेमा के विकल्प के रूप में नहीं रह गया है, बल्कि वह सिनेमा से जुड़ने का एक जरियाभर है.
इस बात की तो चर्चा होती है कि साहित्य को बाजार खरीद-बिक्री के आंकड़ों में बदलता जा रहा है. साहित्य के लिए बिक्री, लोकप्रियता ही एकमात्र पैमाना बनता जा रहा है. समाज को, पढ़नेवालों को बेहतर मूल्य देने के माध्यम के रूप में साहित्य को देखा जाता था.
अब उसकी वह भूमिका समाप्त होती जा रही है. लेकिन, इस बात की चर्चा नहीं होती है कि नाटक भी सिनेमा-टीवी के सामने अपनी स्वतंत्र पहचान खोते जा रहे हैं. उनकी उपादेयता खत्म होती जा रही है. नाटकों के अपने नये मुहावरे सामने नहीं आ रहे हैं और लोकप्रिय मुहावरों को अपनाने के कारण नाटकों का जो एक वैकल्पिक दर्शक वर्ग था, वह सिमटता जा रहा है.
नाटकों का उठाव बहुत आवश्यक है, होते रहना चाहिए. लेकिन, आज देश के बड़े-बड़े नाट्य संस्थानों को इसके ऊपर भी गंभीरता से विचार करने की जरूरत है कि किस तरह से नये बनते दर्शक को नाटकों से जोड़ा जाये? सर्वव्यापी मनोरंजन के इस दौर में उसको रंजन के अपने पैमानों के ऊपर विचार करना होगा. नहीं तो दर्शक हर साल यही अफसोस करते रहेंगे कि नाटक में अब नाटक नहीं रह गया है!