लेखक संगठन किनके हैं?
प्रभात रंजन कथाकार बचपन के मेरे दोस्त संजय ने कटिहार से कल फोन किया और पूछा- ‘ई लेखक संगठन क्या होता है? जैसे फिल्म लेखक संघ होता है वईसे ही क्या?’ मैं अचानक उसको कोई जवाब नहीं दे पाया. क्या देता? आजकल लेखक संगठनों की भूमिका को लेकर फिर से चर्चा हो रही है. अखबार […]
प्रभात रंजन
कथाकार
बचपन के मेरे दोस्त संजय ने कटिहार से कल फोन किया और पूछा- ‘ई लेखक संगठन क्या होता है? जैसे फिल्म लेखक संघ होता है वईसे ही क्या?’ मैं अचानक उसको कोई जवाब नहीं दे पाया. क्या देता? आजकल लेखक संगठनों की भूमिका को लेकर फिर से चर्चा हो रही है. अखबार में, सोशल मीडिया पर एक बार फिर लेखक संगठनों, खासकर वामपंथी लेखक संगठनों की भूमिका को लेकर बहस चल रही है. हर साल एकाध बार इस तरह की बहसें सालाना उत्सव की तरह चलती रहती हैं. लेखक संगठन भी अपने कार्यकलापों में न बदलने के भाव को बनाये रखते हैं.
ऊपर मैंने अपने जिस दोस्त का हवाल दिया, वह युवा है और कुछ लिखता भी है. उसकी चिंता इस बात को लेकर थी कि वह फेसबुक पर जब भी कुछ अच्छा लिखता है, तो कोई और उसके लिखे को अपने नाम से प्रकाशित करवा लेता है. वह जानना चाहता था कि अगर लेखक संगठन भी फिल्म लेखक संगठन की तरह काम कर रहे हों, तो वह फेसबुक पर लिखने से पहले अपनी रचना को लेखक संगठन में रजिस्टर करवा ले, जिससे उसका कॉपीराइट बना रहे.
सुनने में बात बचकानी लग सकती है, लेकिन सोचें तो गंभीर है और यह भी बताती है कि आज के युवा लेखकों के बीच उन लेखक संगठनों की क्या भूमिका रह गयी है. यह हिंदी में युवा विस्फोट का दौर है.
हर विधा में न केवल युवा लेखक लिख रहे हैं, बल्कि अपने लिखे से पहचान भी बना रहे हैं. हिंदी पट्टी में सक्रिय लेखक संगठन उनके काम की कितनी सुध लेते हैं? हिंदी के इस नयेपन से जोड़ने के दिशा में क्या करते हैं?
हाल के वर्षों में दिल्ली में युवा लेखकों का सबसे बड़ा आयोजन एक कलाकार के नाम पर स्थापित न्यास द्वारा किया गया. किसी लेखक संगठन ने इस दिशा में सोचने की जहमत भी नहीं उठायी कि युवा लेखकों को एकजुट किया जाये. नयी रचनाशीलता को दिशा दी जाये. नये तो छोड़िये, पुराने उपेक्षित लेखकों के हित में ही ये संगठन किसी रूप में आगे आये हों, ऐसा सुनने में नहीं आया.
अब चूंकि लेखक संगठन ऐसा करते नहीं हैं, इसलिए संजय जैसे युवाओं को लेखक संगठन और फिल्म लेखक संगठन में कोई अंतर नहीं लगता है. यह सच्चाई है कि आज सक्रिय युवा लेखक, जिन्होंने सोशल मीडिया, डिजिटल मीडिया के दूसरे मंचों के माध्यम से अपनी पहचान बनायी है, वे शायद ही किसी लेखक संगठन से जुड़े हुए हों.
इसका कारण यह नहीं है कि युवा लेखक वैचारिक रूप से परिपक्व नहीं हैं, या उनमें राजनीतिक समझ-बूझ की कमी है, बल्कि कारण यह है कि आज सभी प्रमुख लेखक संगठन राजनीतिक दलों के वैचारिक प्रकोष्ठ की तरह काम करते हैं. वे लेखकों से अधिक अपने राजनीतिक संगठनों के प्रति अधिक निष्ठावान बने रहना चाहते हैं.
साल 1936 में प्रगतिशील लेखक संगठन की स्थापना के मौके पर प्रेमचंद ने लेखन को राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल कहा था. आज लेखक संगठन मोमबत्ती से अधिक नहीं रह गये हैं. ऐसा नहीं है कि इन लेखक संगठनों में विद्वान नहीं हैं, बुद्धिजीवी नहीं हैं, लेकिन वे अपनी भूमिका का निर्वाह उस तरह से नहीं कर पा रहे हैं, जिससे कि इस तेजी से बदलते दौर में उनकी प्रासंगिकता साबित की जा सके.
अगर लेखक संगठन हैं, तो उसमें लेखकों के लिए ‘स्पेस’ होना ही चाहिए. उसमें नयेपन के लिए स्पेस होना ही चाहिए. नहीं तो उनका होना संजय जैसे युवाओं के भोले सवाल की तरह टंगा रह जायेगा कि आखिर ये लेखक संगठन उस जैसे लेखकों के लिए क्या कर सकते हैं?