विकास की आशा और अपेक्षा के बीच स्वस्थ अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहे जानेवाले बैंकों की अनुत्पादक परिसंपत्तियों (एनपीए) का लगातार बढ़ना चिंताजनक सवाल खड़े करता है. दिसंबर माह के अंत तक 42 बैंकों पर एनपीए का बोझ 7.32 लाख करोड़ रुपये हो चुका है.
यह आंकड़ा हर तिमाही में तेज गति से बढ़ रहा है. इस मसले पर रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने सही ही कहा है कि समस्या से निपटने के लिए फौरी तौर पर सख्त कदम उठाने होंगे. गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों के समाधान की दिशा में बैकों द्वारा की गयी अब तक की पहलें नाकाफी रही हैं.
केंद्रीय बैंक द्वारा स्थापित एसेट क्वाॅलिटी रिव्यू (एक्यूआर) व्यवस्था के भी ठोस नतीजे नहीं आ सके. कॉरपोरेट निवेश बढ़ाने और रोजगार सृजन के सरकारी प्रयास भी संतोषप्रद स्तर तक नहीं पहुंच पाये हैं. आचार्य का स्पष्ट रूप से यह कहना कि यदि निवेश और रोजगार सृजन को बहाल करना है, तो एनपीए की समस्या का त्वरित समाधान करना होगा, निश्चित ही एक बड़ा सबक है. एक्यूआर के मुताबिक दिसंबर, 2015 से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के सकल अग्रिमों का लगभग छठवां हिस्सा अनुत्पादक रहा है, इसमें कोई शक नहीं कि इसमें ज्यादातर गैर-निष्पादित परिसंपत्तियां (एनपीए) ही हैं.
अनुत्पादक परिसंपत्तियों का हिस्सा तेजी से बढ़ रहा है, वर्ष 2013 के बाद से यह लगभग दोगुना हो चुका है. ऐसे में बैंकिंग सेक्टर में सुधार के लिए विरल आचार्य के प्रस्ताव विचारणीय हैं. इस संबंध में हम अपने पड़ोसी देश चीन से बहुत कुछ सीख सकते हैं. वहां हाल ही में 70 लाख बैंक डिफॉल्टरों पर कड़ी कार्रवाई की जा रही है. चीन के सुप्रीम पीपुल्स कोर्ट ने बाकायदा 67 लाख से अधिक बैंक डिफॉल्टरों को हवाई जहाज की यात्रा करने, लोन व क्रेडिट कार्ड के लिए आवेदन करने एवं प्रोन्नति पाने से रोक दिया है.
हमारे देश में अदालती और सरकारी आदेशों के बावजूद भी बैंक किसी तरह की दंडात्मक कार्रवाई नहीं कर पाये हैं. ध्यान रहे, फंसे हुए कर्जे न सिर्फ अर्थव्यवस्था के विकास की राह को बाधित कर रहे हैं, बल्कि आम भारतीयों को उनकी जमा-पूंजी पर मिल सकनेवाले लाभों से भी वंचित कर रहे हैं. भारतीय बैंकिंग में व्यवस्थागत सुधार, फंसे कर्जों की वसूली को सुनिश्चित करने के साथ-साथ पूंजी व्यवस्था को सुदृढ़ करने की दिशा में त्वरित ठोस पहल की सख्त जरूरत है.