कहां पहुंचा विमुद्रीकरण?
संदीप मानुधने विचारक, उद्यमी एवं शिक्षाविद् न केवल 50, वरन 100 दिन पूरे हो चुके हैं! भारतीय समाज के सभी स्तरों पर और सभी व्यवसायों में, रोजाना एक चर्चा अवश्य होती है- आप पर नोटबंदी ने क्या असर डाला? और इस वित्तीय और मौद्रिक तूफान के बीच संभलने का प्रयास कर रहे लोगों के लिए […]
संदीप मानुधने
विचारक, उद्यमी एवं शिक्षाविद्
न केवल 50, वरन 100 दिन पूरे हो चुके हैं! भारतीय समाज के सभी स्तरों पर और सभी व्यवसायों में, रोजाना एक चर्चा अवश्य होती है- आप पर नोटबंदी ने क्या असर डाला? और इस वित्तीय और मौद्रिक तूफान के बीच संभलने का प्रयास कर रहे लोगों के लिए दो और सुनामी प्रकट हो गयी हैं- श्री डोनाल्ड ट्रंप और जीएसटी प्रशासन! इनके अपने प्रभाव हैं और सब मिल कर 2017 को दिशा देंगे.
अपनी-अपनी राजनीतिक समझ और समर्थन के मुताबिक, सब अलग-अलग राय देते हैं. मोदीजी और भाजपा के आलोचक उन्हें गलत साबित करने में लगे हुए हैं और ठीक उलटी प्रतिक्रिया सामने से आती है!
इन सबके बीच आम नागरिक सोच रहा है कि आगे क्या होगा, और विश्लेषक यह समझने में प्रयासरत हैं कि भरोसा किस पर करें. आरबीआइ के आंकड़ों पर आंख मूंद कर यकीन करनेवाले भी अब थोड़ा सोच-विचार कर, दो या तीन अलग स्रोतों से मिलान कर ही भरोसा कर पा रहे हैं. इतना कुछ कर गया विमुद्रीकरण- एक तूफान, जिसने पूरी व्यवस्था को नयी दिशा देने का प्रयास किया. हर कोई अपने नजरिये से सत्ता और तंत्र के किसी एक पहलू को समझने और समझाने में लगा हुआ है. सत्तर वर्षों की आजादी में एक साथ हमारी राजनीतिक और राज्य व्यवस्था के अनेकों मुद्दों पर इतनी व्यापक बहस केवल नोटबंदी ही ला सकती थी. प्रतिक्रियाएं पांच प्रकार की आ रहीं हैं –
पहली: राजनीतिक- बहुत कम दल और नेता तटस्थ रह पा रहे हैं. अतिरेकी दावों या आरोपों पर अब जनता भी यकीन नहीं कर रही है, चूंकि प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं. समस्या हुई है, यह धीरे-धीरे सुलझ भी रही है, कहीं-कहीं उलझ भी रही है!
दूसरी: व्यवसायिक-कॉरपोरेट- बड़ी कंपनियों के आंकड़े छिपते नहीं हैं और हर महीने उन पर सफाई भी देनी पड़ती है. यदि किसी बड़ी कंपनी को अपने कार्यक्षेत्र या प्रोडक्ट की प्रकृति के कारण नोटबंदी से चोट लगी, तो उनके अधिकारी न तो खुल कर सरकार की बुराई कर पा रहे हैं, न अपने ग्राहकों/शेयर-होल्डर्स को तिथि दे पा रहे हैं कि कब सब सामान्य हो जायेगा. निजी चर्चा में भावनाओं का तूफान उमड़ता जरूर है, किंतु चर्चा खत्म होते-होते भाग्यवाद की ओट लेते हुए सब आगे बढ़ लेते हैं! हां, इसका एक ही अपवाद है- वित्तीय टेक्नोलॉजी कंपनियाें के भाग्य खुल गये हैं.
तीसरी: आर्थिक विश्लेषण- आंकड़े स्पष्ट नहीं आये हैं और यह सबसे अचरज की बात है. आरबीआइ ने अंतिम आंकड़े (डाउन टू दि लास्ट जीरो) अधिकृत रूप से देने से इनकार किया है (यदि आरटीआइ लगानेवालों की बात मानें). आर्थिक समीक्षा और केंद्रीय बजट में भी कोई अंतिम आंकड़ा नहीं आया, जबकि 50 दिन कब के पूरे हो चुके थे. तो लाखों-करोड़ों की देयता खत्म कर एक बड़ा ‘बोनांजा’ मिलने की बड़ी-बड़ी बातें सब फुर्र हो गयीं!
चौथी: छोटे कारोबारी और असंगठित क्षेत्र- कमोबेश सभी अलग-अलग सुर में रो रहे हैं. धन का प्रवाह (सर्कुलेशन ऑफ मनी) एकदम से रुका और अब बहुत धीरे-धीरे गति पकड़ रहा है.
अनेक लोग जो कभी सरकारी नौकरियों की दौड़ में नहीं लगे, रोजगार से हाथ धो बैठे हैं, और चुनावों में विरोधी पार्टियों की आशा बन कर चमक रहे हैं. धंधा मंदा है!
पांचवां: अंतरराष्ट्रीय निवेशक- इसमें प्रशंसा करनेवाले और सवाल उठानेवाले, दोनों खड़े हैं. लेकिन, एक बात दोनों कहते हैं- ‘थोड़ा रुक कर ही पता चलेगा कि क्या होनेवाला है.’ कितना रुक कर? पता नहीं! वहीं अर्थशास्त्रियों से सवाल करना खतरनाक होता है, क्योंकि बेहद जटिल समीकरण बहने लगते हैं!
इसमें कोई शक नहीं कि इतना बड़ा मौद्रिक कदम, जिससे हर एक भारतीय प्रभावित हुआ है, उसे उठाने का साहस मोदीजी के अलावा शायद कोई नहीं कर पाता. जनता का अपार प्रेम और समर्थन उन्हें शुरुआती दिनों में मिला और धीरे-धीरे लोग आनेवाले दिनों में सकारात्मक प्रभाव हेतु उम्मीद लिये अपने-अपने कामों में लग गये.
किंतु मोटे तौर पर, हमें पहले बताये गये प्रमुख लक्ष्य कहीं-न-कहीं बिखरते दिख रहे हैं- कश्मीर में पत्थर फेंकनेवाले फिर से जोर-आजमाइश में लग गये हैं, नकली नोट पकड़े जा रहे हैं, भ्रष्टाचार कहीं कम नहीं हुआ है, इत्यादि. एक और बात, विरोधी दल इतनी बड़ी ‘विपदा’ को राजनीतिक रूप से तुरंत नहीं भुना पाये, इससे उनकी साख और लोगों की इन दलों से अपेक्षा पर एक औचक रिपोर्ट तो मिलती ही है.
सबसे बड़ा आर्थिक आश्चर्य रहा लगभग पूरी मात्रा में विमुद्रीकृत नोटों का बैंकों में पुनः जमा हो जाना. शायद हमेशा ब्लैक का काम करनेवालों ने सोचा होगा कि इस बार भी गलियां बना कर, जनधन खातों की मदद से, सब ठीक कर लेंगे. उन्होनें ‘बिग डाटा विज्ञान’ के बारे में सुना नहीं होगा – जिसकी मदद से आयकर विभाग एक एक को ‘चुन-चुन कर पकड़ने’ में लग गया और लाखों जमाकर्ताओं को एसएमएस कर अनौपचारिक नोटिस दे दिये, हालांकि ऊपर से निर्देश स्पष्ट हैं कि प्रताड़ना न की जाये. फिलहाल, इस मोरचे पर, मानना पड़ेगा कि दीर्घावधि लाभों की बात जो अनेकों मंत्रियों ने दोहरायी है, वह सच हो सकती है.
संसदीय समिति द्वारा आरबीआइ गवर्नर से सवाल-जवाब हुए, तब कुछ पता चला कि शायद पूरी तैयारी नहीं थी. विमुद्रीकरण पर अनेक हफ्तों तक संसद कोई सार्थक चर्चा न कर सकी और विधानसभा चुनाव आ गये. इन सब घटनाओं ने भारतीयों को एक बात सोचने पर तो मजबूर कर दिया है- क्या बार-बार के चुनावों से किसी का भला हो रहा है? बड़ी समस्याएं और मुद्दे सब धरे रह जाते हैं और पूरा लक्ष्य कहीं और ही हो जाता है! और फिर, अगला ‘बड़ा’ चुनाव. या अगला ‘छोटा’ चुनाव.
कई लोगों का मानना है कि नकदी निकलने की सीमा हटी नहीं कि पुरानी स्थिति पुनः बनी नहीं. तो फिर इलेक्ट्रॉनिक भुगतान क्रांति का क्या? एक आशा की किरण जो अभी बनी हुई है वह है अचल संपत्ति (रियल एस्टेट) की धुलाई-सफाई. कैश लेन-देन लगभग समाप्त हो जाने से अब असल खरीदार अपेक्षाकृत सही दामों पर (अर्थात घटे हुए) बाजार में आयेंगे. हमारी राजनीति की काली कमाई का एक बड़ा स्रोत और खपाने का यंत्र टूट सकता है. यदि ऐसा भी हुआ, तो एक बड़ी विजय मानी जा सकेगी.
कुल मिला कर, इंतजार करें. और इस दौरान बोरियत दूर करने के लिए नजरें गड़ाये रखें खबरों और अफवाहों पर कि 1000 का नोट फिर आ रहा है क्या?