चुनावी जंग में पिचकता लोकतंत्र!

उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार पांच राज्यों के चुनाव से ऐन पहले जनवरी के पहले सप्ताह में जब सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा कि चुनावों में जाति-धर्म-भाषा के नाम पर वोट मांगना या मतदाताओं के बीच गोलबंदी करना नाजायज और गैर-कानूनी है, तो देश के करोड़ों आम लोगों को लगा कि अब जातीय-धार्मिक ध्रुवीकरण का […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 24, 2017 6:41 AM

उर्मिलेश

वरिष्ठ पत्रकार

पांच राज्यों के चुनाव से ऐन पहले जनवरी के पहले सप्ताह में जब सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा कि चुनावों में जाति-धर्म-भाषा के नाम पर वोट मांगना या मतदाताओं के बीच गोलबंदी करना नाजायज और गैर-कानूनी है, तो देश के करोड़ों आम लोगों को लगा कि अब जातीय-धार्मिक ध्रुवीकरण का सियासी-सिलसिला हमेशा के लिए खत्म हो जायेगा. लेकिन, पंजाब और उत्तर प्रदेश में जाति-धर्म-संप्रदाय के आधार पर मतदाताओं के बीच गोलबंदी या ध्रुवीकरण का प्रयास इस बार पहले से भी ज्यादा दिखा. यूपी में चुनावी-विमर्श सड़क-बिजली-पानी-सेहत-शिक्षा और निर्माण से ‘श्मशान-कब्रिस्तान’ पर उतर आया. चुनावी जंग के तीसरे चरण के बाद वह ‘कसाब’ तक पहुंच आया.

किसी और ने नहीं, सत्ताधारी दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने तीन विपक्षी पार्टियों-कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बसपा के नाम के पहले अक्षर को लेकर एक नया शब्द खोजा और तीनों को मुंबई आतंकी हमले के खूंखार पाकिस्तानी आतंकी ‘कसाब’ जैसा बता दिया. उन्होंने फरमाया कि इन तीनों दलों के रहते यूपी का विकास नहीं हो सकता! पता नहीं, चुनाव खत्म होते-होते हमारे राजनीतिक विमर्श का स्तर कहां जा पहुंचेगा? लेकिन, अचरज की बात है कि यूपी में चुनावी विमर्श के इस गिरते स्तर और सांप्रदायिक-विभाजन करते नेताओं के संबोधनों के मामले में निर्वाचन आयोग या सर्वोच्च न्यायालय ने इन पंक्तियों के लिखे जाने तक किसी तरह का कारगर हस्तक्षेप नहीं किया. बात सिर्फ एक ही दल की नहीं है. सपा प्रमुख उत्तर प्रदेश के ‘चौमुखी विकास’ की बात करते-करते अचानक ‘गुजरात के गधों’ वाले विज्ञापन की बात करने लगे! हालांकि, यह बात अपनी जगह दुरुस्त है कि ‘गुजरात के गधों’ वाले मामले में फिरकापरस्ती या जातिवाद का जहर नहीं था. पर, अपमान करते व्यंग्य का पुट तो था! बसपा प्रमुख ने भी जाति-वर्ण के आधार पर मतदाताओं को वोट देने का आह्वान किया.

‘पोस्ट ट्रूथ’ और ‘फेक न्यूज’ के इस वैश्विक युग में बिजली आपूर्ति के ‘सांप्रदायिक परिप्रेक्ष्य’ का सवाल भी उछला, जो 13,500 मेगावाॅट बनाम 15,400 मेगावाॅट की बिजली आपूर्ति के अधिकृत आंकड़े के खुलासे के बाद फुस्स भी हो गया. फिर वह ‘श्मशान और कब्रिस्तान’ की तरफ बढ़ गया. हमारी जानकारी के अनुसार, उत्तर प्रदेश सरकार के संपूर्ण बजट में कब्रिस्तान-श्मशान आदि की देखरेख-निर्माण आदि की बजट-राशि महज 0.4 प्रतिशत है. यानी देश के बड़े नेता भी यूपी के तमाम बड़े मुद्दे, जिन पर बजट का 99.9 प्रतिशत से भी ज्यादा हिस्सा खर्च होना है, को छोड़ कर सिर्फ 0.4 फीसदी वाले हिस्से पर टूट पड़े!

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के इस चुनावी विमर्श को यूरोप के विकसित लोकतांत्रिक समाजों और देशों के नागरिक सुनेंगे, तो दो ही काम कर सकते हैं : या तो खूब हंसेंगे या हमें कोसेंगे! वैसे भी उत्तर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में आमतौर पर बहुसंख्यक समुदाय के लोग अंतिम संस्कार किसी नदी के किनारे संपन्न करते हैं. जहां नदियां नहीं हैं, वहां तालाब आदि के किनारे किसी खेत या गांव की खाली जगह पर अंतिम संस्कार कर दिया जाता है.

जहां तक शहरों का सवाल है, हर जगह पर्याप्त मात्रा में शवदाह-गृह बने हुए हैं और समय-समय पर उनकी संख्या बढ़ायी भी जाती है. नागरिक समाज में मैंने कभी भी इसे एक मुद्दे के तौर पर उभरते नहीं सुना. हालांकि, मंदिर-मसजिद जैसे सवाल बार-बार हमारे चुनावों में, खासकर यूपी में उठाये जाते रहे, पर अब तक किसी भी चुनाव में ‘श्मशान-कब्रिस्तान’ का मुद्दा इस तरह नहीं उछला था. सोचने की जरूरत है- ‘नोटबंदी’ और ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ की ‘महान उपलब्धियों’ की चरचा के बजाय ‘श्मशान-कब्रिस्तान’ या ‘कसाब’ ही क्यों?

इस बीच, एक अन्य मसला भी उभर कर सामने आया. यूपी और मणिपुर में चुनाव लड़ रहे कुछ प्रत्याशियों ने एक ‘स्टिंग आॅपरेशन’ के दौरान स्वीकार किया कि उन्होंने विधायकी के चुनाव में एक करोड़ से चार करोड़ रुपये खर्च किये हैं. यूपी में एक प्रत्याशी के चुनाव खर्च की स्वीकृत राशि 28 लाख और मणिपुर में 20 लाख रुपये है. चुनाव सुधार के ज्यादा लंबे-चौड़े एजेंडे के बजाय अगर हम सिर्फ इन्हीं दो मुद्दों, धर्म-जाति के आधार पर चुनावी गोलबंदी और दलों-प्रत्याशियों की तरफ से होनेवाले अपार खर्च के सवाल को हल कर लें, तो भारत के लोकतंत्र की दो बड़ी बीमारियों का खात्मा हो सकता है.

हमारी चुनाव-नियमावली का ‘खर्च संबंधी हिस्सा’ इतना विरोधाभासी है कि वह भारतीय लोकतंत्र के चरित्र पर गंभीर सवाल उठाता है. अपने यहां प्रत्याशियों के चुनाव खर्च की सीमा तय है, पर पार्टियों के खर्च के ऊपर कोई सीमा नहीं है. यानी चुनाव प्रक्रिया में राजनीतिक दलों की हिस्सेदारी के लिए बराबरी का मैदान (लेवेल प्लेइंग फिल्ड) नहीं है. बीते पैंसठ सालों से यह सवाल अनुत्तरित है, चुनाव में प्रत्याशी के खर्च की सीमा तय है, तो दलीय खर्च की सीमा क्यों नहीं?

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