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बात जंगल के अस्तित्व की
गिरींद्र नाथ झा ब्लॉगर एवं किसान मेरे गांव चनका के समीप एक बहुत विशाल वन-क्षेत्र है. कोसी की उपधारा कारी-कोसी इस जंगल के करीब से गुजरती है. चिड़ियों का झुंड यहां जमा होता है. जब मैं इस वन क्षेत्र से गुजरा, तो देखा कि कुछ पेड़ कटने लगे हैं. इन पेड़ को कौन काट रहा […]
गिरींद्र नाथ झा
ब्लॉगर एवं किसान
मेरे गांव चनका के समीप एक बहुत विशाल वन-क्षेत्र है. कोसी की उपधारा कारी-कोसी इस जंगल के करीब से गुजरती है. चिड़ियों का झुंड यहां जमा होता है. जब मैं इस वन क्षेत्र से गुजरा, तो देखा कि कुछ पेड़ कटने लगे हैं. इन पेड़ को कौन काट रहा है? यह बड़ा सवाल है, क्योंकि जंगल जहां भी कम हो रहा है, वहां की खेती और जीवन शैली प्रभावित हो रही है. आज समूची दुनिया में जंगल जिस तेजी से खत्म हो रहे हैं, उससे लगता है कि वह दिन दूर नहीं, जब जंगलों के न रहने की स्थिति में धरती की बहुमूल्य जैव संपदा बहुत बड़ी तादाद में नष्ट हो जायेगी, जिसकी भरपाई कभी नहीं हो पायेगी.
मुझे याद है, गांव के नहर के बांध पर सैंकड़ों की संख्या में शीशम-जामुन के पेड़ हुआ करते थे, लेकिन अब गिनती के भी नहीं हैं. पहले हर खेत की सीमा पेड़ से निर्धारित होती थी. लोगों की जुबान पर पेड़ के नाम होते थे, लेकिन अब पेड़ पुराने दिखते ही नहीं हैं. गांव का चंपे उरांव ठीक ही कहता है- ‘जंगल उजड़ता जा रहा है, हम कंगाल होते जा रहे हैं.’
जंगलों के सफाये की बेलगाम तेजी से बढ़ती रफ्तार को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि वह दिन दूर नहीं जब जंगलों का नाम केवल रिसर्च पेपर में ही देखने-पढ़ने को मिले. एक साइंस मैगजीन में पढ़ने को मिला कि जिस तेजी से जंगल खत्म हो रहे हैं, उससे यह अंदाज लग रहा है कि धरती अपने जीवन में छठवीं बार बहुत बड़े पैमाने पर जैव संपदा के पूरी तरह खात्मे के कगार पर पहुंच चुकी है. वैज्ञानिकों के अनुसार, इस बार केवल अंतर यह है कि इससे पहले जब-जब युग परिवर्तन हुआ, उस समय हमेशा ही इसके कारण ‘प्राकृतिक’ ही रहे थे, लेकिन इस बार इसका सबसे बड़ा और अहम कारण ‘मानव निर्मित’ है. घर-उद्योग आदि बनाने के लिए हम सब जंगलों को लगातार काटते जा रहे हैं.
गांव के बुजुर्ग लोग पुराने पेड़ों- यानी दूर-दूर तक फैले जामुन-कटहल-शीशम आदि के बागों का जिक्र करते हैं. आज एक भी बड़ा वन क्षेत्र नहीं है. घटते वन क्षेत्र की कहानी सुन कर इस बात की आशंका बलवती होती है कि जंगलों के खात्मे का सीधा सा अर्थ है धरती की बहुत बड़ी तादाद में जैव संपदा खत्म हो जायेगी, जिसकी आनेवाले दिनों में भरपाई की उम्मीद बेमानी होगी.
दुनिया में जिस तेजी से ग्लोबल वार्मिंग का खतरा मंडरा रहा है, उसके मद्देनजर जिन जंगलों से हमें कुछ आशा की किरण दिखायी देती है, उनका तो पूरी तरह अस्तित्व ही खत्म हो जायेगा, इसमें संदेह ही नहीं है.
जंगल की कहानियों में जो मुझे सबसे अधिक खींचती है, वह है पेड़ों की पूजा. पहले लोग पेड़ों की आराधना करते थे. अंचल की स्मृति को खंगालने से पता चलता है कि यहां मंदिर-मसजिद से दूर ‘ऊपरवाला’ गाछ-वृक्ष में वास करता आया है. काली मंदिर भी काली-थान कहलाती है. कहीं पर एक बूढ़ा पेड़ जाने कब ‘बाबूजी थान’ बन गया. यहां इतिहास स्मृति की पोथी में बैठ जाती है, जिसे खंगालना पड़ता है.पेड़ किस तरह लोगों को और गावों को जोड़ता है, हमने इसे ग्रामीण परिवेश में ही सीखा जा सकता है.
जंगल की बात जब भी चलती है, तब जर्मनी के जंगलों का जिक्र जरूर किया जाना चाहिए, क्योंकि जर्मनी में आधे से ज्यादा जंगल निजी हाथों में हैं. कई जंगल तो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को विरासत में मिलते हैं. जंगल का एक हिस्सा खरीदना भी यहां मुमकिन है. कई लोग इसे कारोबार की तरह करते हैं.
जंगल को लेकर किसानी कर रहे लोगों को अब सतर्क होना होगा. व्यक्तिगत स्तर पर वृक्षारोपण पर जोर देना होगा. अधिक-से-अधिक पेड़ लगा कर भविष्य के लिए हमें वन क्षेत्र तैयार करना होगा.
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