कांग्रेस का अंत की ओर बढ़ना
!!आकार पटेल, कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया!! राजनीतिक दलों का अंत कैसे होता है? इस बात को समझने के लिए लंबे समय से धीरे-धीरे अंत की ओर बढ़ रही कांग्रेस को देखने की जरूरत है. भारत के इस सबसे पुराने राजनीतिक दल की स्थापना 132 वर्ष पहले हुई थी और यह केवल तीन बार ही […]
!!आकार पटेल, कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया!!
राजनीतिक दलों का अंत कैसे होता है? इस बात को समझने के लिए लंबे समय से धीरे-धीरे अंत की ओर बढ़ रही कांग्रेस को देखने की जरूरत है. भारत के इस सबसे पुराने राजनीतिक दल की स्थापना 132 वर्ष पहले हुई थी और यह केवल तीन बार ही सत्ता से बाहर रही है. लेकिन, वर्तमान परिदृश्य से यह स्पष्ट है कि अगर इस पार्टी का अंत नहीं होता है, तो भी यह राष्ट्रीय शक्ति के तौर निष्क्रिय जरूर हो जायेगी. कांग्रेस को गंभीर रूप से नुकसान पहुंच चुका है और इसमें बहुत कम सकारात्मक बातें नजर आती हैं. अपने छोटे आधारभूत मतदाताओं के लिए भी इसके पास कोई स्वाभाविक राजनीतिक संदेश नहीं है.
अगर एक राष्ट्रीय शक्ति के तौर पर कांग्रेस खत्म हो जाती है, तो एक बड़े दल के अंत हाेने की यह पहली घटना नहीं होगी (कहने का अर्थ है कि अगर इसे लंबे समय तक उतना मत न मिले, जितना चुनाव चिह्न हाथ को बचाने के लिए जरूरी है).
अखिल भारतीय मुसलिम लीग का अंत इसलिए हुआ, क्योंकि जिस कारण से यह पार्टी अस्तित्व में आयी थी, वह कारण समाप्त हो गया. इस दल की स्थापना 20वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में मुसलमानों को उनका राजनीतिक अधिकार दिलवाने और औपनिवेशिक सत्ता से जूझने के लिए हुई थी.
इसने कांग्रेस (जो अनेक मुसलमानों द्वारा हिंदुओं का दल माना जाता था, ठीक वैसे ही जैसे आज भाजपा को माना जाता है) के साथ सत्ता में साझेदारी के लिए समझौते की पहल की थी, लेकिन यह कोशिश असफल रही. यह असफलता ही देश के बंटवारे का कारण बन कर सामने आयी और कमोबेश भारत में मुसलिम लीग का अंत हो गया. इसका अंत इसलिए हुआ, क्योंकि इसके साथ देश के बंटवारे का दाग जुड़ गया था. बहुत दिनों तक इंडियन यूनियन मुसलिम लीग के केवल एक ही सांसद (जीएम बनातवाला) ही इसका प्रतिनिधित्व करते रहे. बनातवाला यद्यपि गुजराती थे, लेकिन वे लगातार केरल से सांसद चुने जाते रहे. वहीं बंटवारे के बाद अपने कई प्रधानमंत्रियों के अधीन पाकिस्तान में मुसलिम लीग दशकों तक सत्ता में बनी रही. इसका प्राथमिक मंच, जो कि दो देश का सिद्धांत था, पाकिस्तान में बहुत ज्यादा प्रासंगिक नहीं रह गया था. इसके दो बड़े नेता, इस राष्ट्र के निर्माण के तुरंत बाद ही गुजर गये. गवर्नर जनरल जिन्ना की मृत्यु 11 सितंबर, 1948 को तपेदिक से हुई और प्रधानमंत्री लियाकत अली खान की 16 अक्तूबर, 1951 को एक सार्वजनिक कार्यक्रम में हत्या कर दी गयी.
जब कुछ सालों बाद जनरल अयूब खान ने सत्ता को अपने कब्जे में लिया, तो जिन्ना के दल में विभाजन हो गया, परिणामस्वरूप, कंवेंशनल मुसलिम लीग का निर्माण हुआ. एक ही दल के दो संस्करण होने की पाकिस्तान में यह पहली घटना थी. इस प्रकार सैन्य प्रमुख के सहयोग से किसी दल के टूटने और उसके पुनर्निर्माण की यह परंपरा पाकिस्तान में दशकाें तक कायम रही. जनरल जियाउल हक के प्रधानमंत्री जुनेजो ने मुसलिम लीग(जे) बनायी, तो जनरल मुशर्रफ को मुसलिम लीग (क्यू) का समर्थन प्राप्त था. पाकिस्तान मुसलिम लीग (नवाज), जो आज सत्ता में है, की स्थापना भी जनरल जिया के समय ही हुई थी.
वहीं कांग्रेस भारत में राष्ट्रीय स्तर पर कमोबेश संगठित बनी रही. लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु होने के बाद जब इंदिरा गांधी ने सत्ता संभाली, तब कांग्रेस में एक बड़ा विभाजन हुआ. नेहरू के साथ काम करनेवाले बुजुर्ग नेताओं ने अलग कांग्रेस पार्टी बनायी, लेकिन इंदिरा गांधी ताकतवर नेता थीं और उन्होंने अपने करिश्मे और लोकप्रियता के दम पर संगठन को अपने हाथों में ले लिया.
जनता पार्टी ने इंदिरा गांधी की पार्टी को हराया था, वह क्षेत्रीय दलों से मिल कर बना गंठबंधन था और उसकी विचारधारा समाजवादी और कांग्रेस विरोधी थी. इसकी स्थापना आपातकाल के दौरान हुई थी और इसने इसके तुरंत बाद अपनी प्रासंगिकता खो दी. इसके सदस्यों ने जनता दल के जरिये कांग्रेस का विरोध जारी रखने की कोशिश की, लेकिन वह प्रयास अपर्याप्त साबित हुआ और इसने इस पार्टी को दक्षिण और उत्तर के खेमे में बांट दिया.
राम जन्मभूमि आंदोलन के साथ एलके आडवाणी ने भारतीय राजनीति को एक दूसरी दिशा दी. जनता पार्टी के जो धड़े कांग्रेस विरोधी थे, वे अब हिंदुत्व के प्रबल विरोधी हो गये. ऐसा इसलिए हुअा, क्योंकि वे भाजपा से डरे हुए थे और तब से आज तक ऐसा ही बना हुआ है. राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने किसी को भी बहुत ज्यादा समर्थन देना बंद कर दिया. उसकी अपनी कोई विचारधारा नहीं रह गयी और यह स्थिति नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह तक ऐसे ही बनी रही.
दिल्ली में कांग्रेस इसलिए हार गयी, क्योंकि राज्यों में उसकी स्थिति कमजोर हो गयी है. वर्ष 2004 से लेकर 2014 के शासन काल में कुछ सत्य छुपाये गये. उत्तर भारत के बड़े हिस्से में वह स्थायी तौर पर विपक्ष में है. गुजरात में उसने तीन दशक से एक भी चुनाव नहीं जीता है.
कई दूसरे बड़े राज्यों में, जहां भाजपा सत्ता में है या विपक्ष में है, वहां कांग्रेस चौथे या पांचवें स्थान पर है, यानी अप्रासंगिक है. वह जितना सोच रही है, उससे कहीं ज्यादा तेजी से दक्षिण में भाजपा के हाथों अपनी जमीन हार रही है और हिंदुत्व तमिलनाडु और केरल में अनवरत आगे बढ़ रहा है.
कांग्रेस के क्षेत्रीय नेताओं ने काफी पहले इस पार्टी का अंत होते देख लिया था. उनमें से कुछ ने सफलतापूर्वक पार्टी को अपने कब्जे में भी ले लिया, जैसे पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी. इसके अलावा, अन्य भी थे, जैसे महाराष्ट्र में शरद पवार, हालांकि वे कम सफल रहे. लेकिन, तब भी उनके पास अपनी पार्टी का कांग्रेस में पुन: विलय करने का कोई कारण नहीं है, क्योंकि वह दागदार ब्रांड है.
रिपोर्ट बताती हैं कि महाराष्ट्र में हाल में हुए निकाय चुनावों में कांग्रेस की जो दुर्दशा हुई है, उसका कारण उम्मीदवारों को पार्टी की तरफ से वित्तीय सहायता नहीं देना है. यह एक खतरनाक संकेत है, लेकिन इससे चौकस रहने की जरूरत है. यह पार्टी अभी और नुकसान उठायेगी, क्योंकि इस पर एक परिवार का कब्जा है और उसकी कोई विश्वसनीयता नहीं है.
हालांकि, यह संभव है कि दूसरे नेताओं के नेतृत्व में कांग्रेस पुनर्जीवित हो जाये. लेकिन, राहुल गांधी बूढ़े नहीं हैं. उनके सामने काम करने के लिए अभी कुछ और दशक बाकी हैं. यह कांग्रेस के लिए नुकसानदेह साबित होगा, क्योंकि पार्टी अब राष्ट्रीय स्तर पर अप्रासंगिक होती जा रही है.