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आस्था के आर-पार

सुजाता युवा कवि एवं लेखिका उस वक्त उनके चेहरे असीम शांति से भरे होते हैं और बीच-बीच में सूचनाओं के आदान-प्रदान करते हुए वे मस्त हुई रहती हैं. शाम के वक्त मोहल्ले, सोसाइटी के मंदिर और पार्क ऐसी ही स्त्रियों के अड्डे बन जाते हैं, जहां कीर्तन होते हैं, तो बीच में चुगली भी, सास-ननदोई-बहू-बेटा […]

सुजाता
युवा कवि एवं लेखिका
उस वक्त उनके चेहरे असीम शांति से भरे होते हैं और बीच-बीच में सूचनाओं के आदान-प्रदान करते हुए वे मस्त हुई रहती हैं. शाम के वक्त मोहल्ले, सोसाइटी के मंदिर और पार्क ऐसी ही स्त्रियों के अड्डे बन जाते हैं, जहां कीर्तन होते हैं, तो बीच में चुगली भी, सास-ननदोई-बहू-बेटा पुराण भी, भक्ति भी और विरेचन भी. जो स्त्रियां कामकाजी नहीं हैं, उनके जीवन में आस्था एक बेहद अनिवार्य तत्व की तरह है. भक्ति उनके लिए एक जगह है. मंदिर या गुरुद्वारा उनके लिए एक रास्ता है. अपने बगल में बैठी एक सामान्य घरेलू अनजान स्त्री से संवाद कायम करना हो, तो शायद व्रत-उपवास-पूजन विधि या आस्था से जुड़े कुछ अनुभवों का आपस में आदान-प्रदान करने से प्रभावी कुछ नहीं होगा.
यह सच है कि धर्म स्त्री का बड़ा शत्रु है. उससे टकराये बिना उसकी आजादी की राहें नहीं निकलेंगी. धर्म एक बड़ी संरचना है समाज की. इसलिए उससे टकराना स्त्री क्या पुरुष के लिए भी आसान नहीं रहा है कभी. स्त्री के लिए दुश्कर इसलिए भी कि उसके दमन, शोषण और स्त्री के रूप निर्मिति को धर्म ने नियम के रूप में लिख दिया और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के हाथ में उसकी कमान सौंप दी. समाज की अन्य नयी बनती सभी संरचनाओं ने, चाहे वह बाजार हो, मीडिया हो या नयी मल्टीनेशनल कंपनीज हों, सबने लैंगिक विभेद को आत्मसात किया और स्त्री के खिलाफ आपसी सहयोग किया.
स्त्रियां धर्म की सब्जेक्ट भी हैं और टूल भी. आस्था के रूप में धर्म एक बेहद गहरा संस्कार है, जो स्त्री के भीतर पैठा होता है. किसी जागरण की रात में, अरदास करते हुए या जब दोनों हाथ उठा कर कोई स्त्री श्रद्धा से, मन में अपने परिवार के सुख और शांति की कामना कर रही होती है और अपने प्रसन्नवदन बच्चों को देख कर मन में उन पर से सब बलाओं के हमेशा टले रहने की प्रार्थना करती है, ठीक उसी वक्त उसे समझाया नहीं जा सकता कि वह एक एजेंट के रूप में अपने ही खिलाफ काम कर रही है. जिसके भरोसे वह जीती आयी, एक औरत से उसकी आस्था को छीनने के बाद हम उसे क्या दे सकते हैं? ऐसा क्या दे सकते हैं कि जिससे उसे अपने जीने में उद्देश्यविहीनता महसूस न हो? अनास्था से भरा हुआ मनुष्य, जिसे बताया जाये कि अब तक तुमने जो किया गलत किया, जिस तरह जिया वह तरीका गलत था, यह कि जो फैसले तुम्हारे थे, वे दरअसल तुम्हारे कभी थे ही नहीं, तब उस स्थिति में हमारे पास उसके बिखराव को समेटने के लिए क्या हो सकता है? देखा यही गया है कि पूरी तरह टूटा हुआ मनुष्य भी आस्था का तिनका ही खोजता है. इसलिए पहली स्वाभाविक प्रतिक्रिया उसकी ओर से अस्वीकार की ही आयेगी.
लेकिन, तर्क की लीक पर आने के बाद भी क्या आस्थाविहीन हो जाने का मामला उसके लिए आसान रह जायेगा? हम इन सब सवालों को जेंडर निरपेक्ष तरीके से देख सकते हैं, लेकिन स्त्रियां, अतीत में जिनके पास घर और परिवार के अलावा जीवन का कोई बड़ा उद्देश्य कभी नहीं रहा और जो भूकंप आने पर, घर के किसी व्यक्ति के बीमार होने पर, किसी भी संकट में आंख मूंद कर अपने ईश्वर का नाम ले लेती हैं और किसी व्रत या पूजा का संकल्प करती हैं, उनके साथ संवाद स्थापित करने के लिए आस्था का जरिया प्रमुख है. लेकिन, इस चैनल का इस्तेमाल कौन सी एजेंसी कैसे करती है, यह देखना और जांचना भी एक महत्वपूर्ण शोध हो सकता है.
आस्था परोसनेवाले चैनल, मोबाइल फोन पर भक्ति एप, कालनिर्णय कैलेंडर, बाबा, संत, गुरुजी और न जाने क्या-क्या है, जो स्त्रियों के भीतर इस आस्था को सबसे आसानी से भुना लेते हैं. हमारे पिता आर्य समाजी थे, लेकिन मां के सनातन धर्म के प्रभाव में आकर वे धीरे-धीरे पूजा-पाठ, तीर्थाटन, व्रत-उपवास सब करने लगे. धर्म की नियमावलियां बनाये रखने में स्त्रियों की महती भूमिका होती है, जिसकी बड़ी वजह है कि अपनी घर-देहरी से वे जैसे चिपकी रह सकती हैं, वैसे पुरुष नहीं. इसलिए वे नियमों का पालन खूब चाक-चौबंद होकर करती और करवाती हैं. आज के दौर में सुबह 9 से शाम के 7 बजे तक घर से बाहर नौकरी करनेवाली स्त्री बता सकती है कि वह कैसे इन नियमों में छुप-छुपा कर, छूट लेकर अपना काम चलाती है. लेकिन, छूट लेना आसान है, छूटना मुश्किल है. पढ़ी-लिखी स्त्रियों के लिए भी आस्था का विषय अप्रश्नेय है. इस मायने में यह स्त्रीवाद के लिए एक बड़ी चुनौती है.
ईश्वर को पति मान कबीर ने लिखा ‘हरि मोरा पिउ मैं हरि की बहुरिया’ इसे याद करके एकबारगी यह विचार आया कि आखिर भक्ति और आस्था के लिए स्त्रैण गुणों का होना क्यों मायने रखता है? फिर यह भी कि कैसे स्त्रियां आस्था- भक्ति के चक्कर में इतनी आसानी से पड़ती हैं.
इसके पीछे यह धारणा अवश्य काम करती होगी कि स्त्रियां स्वभाव से ग्रहणशील होती हैं, जैसा कि उन्हें जन्म के बाद से प्रशिक्षित किया ही जाता है. अक्सर वे रिसीविंग एंड पर होती हैं. माना ही जाता रहा कि वे कर्ता नहीं हैं. प्रश्नाकुलता का उनमें अभाव होता है. समर्पण और निरीहता स्त्रैण गुण हैं. दैन्य, जो भक्ति का एक भाव है, उसे स्त्रियों से सीखा जा सकता है. स्वयं को सबसे बाद में रख कर अपने पति और परिवार को महत्व देने की तत्परता उनमें देखी जा सकती है. भक्ति के लिए इससे बेहतर और धर्म के लिए इससे अनुकूल पात्र कौन हो सकता है, जिन्हें बैठा कर प्रवचन दिया जा सकता हो. कोई गार्गी ही हो जाये और शास्त्रार्थ करने बैठ जाये, तो उसे हार माननी होगी या सर कलम कराना होगा. बावजूद इसके यह पूरा खेल निर्विघ्न चलता रहा है. इसके पचड़े भोली आस्थाओं पर खत्म नहीं होते. अंतत: विकृतियों की ओर ले जाते हैं. वे ज्योतिषियों तक पहुंचती हैं. वशीकरण मंत्र के पूरे असर के वायदे के साथ ज्योतिषी उनका फायदा उठाते हैं. ठीक जैसे कोई ढोंगी बाबा या फर्जी गुरु उनकी घरेलू परेशानियों के इलाज के एवज में उठाता है.
स्त्रीवाद का लक्ष्य धर्म के स्त्री-विरोधी तत्वों से टकराना हो या धर्म को खारिज करना, यह ठीक वैसी ही उलझन है, जैसा यह कि परिवार में हेर-फेर करके उसे कम शोषक बनाना या उस संस्था को ही खत्म किया जाना. मन के भीतर सदियों से जमी हुई आस्थाओं को खुरच कर निकालना दर्दनाक काम है.

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