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पूंजी के लिए परेशान किसान

गिरींद्र नाथ झा ब्लॉगर एवं किसान गांव का हरीश कमाई को लेकर हमेशा परेशान रहता है. इस बार आलू की पैदावार अच्छी हुई, लेकिन कीमत न मिलने के कारण वह फिर से परेशान है. हरीश बार -बार पंजाब का जिक्र करता है. उसको बताता हूं कि पंजाब में किसान लोग भी परेशान हैं, लेकिन वह […]

गिरींद्र नाथ झा

ब्लॉगर एवं किसान

गांव का हरीश कमाई को लेकर हमेशा परेशान रहता है. इस बार आलू की पैदावार अच्छी हुई, लेकिन कीमत न मिलने के कारण वह फिर से परेशान है. हरीश बार -बार पंजाब का जिक्र करता है.

उसको बताता हूं कि पंजाब में किसान लोग भी परेशान हैं, लेकिन वह मानने के लिए तैयार नहीं है. दरअसल, देश के हर हिस्से के ग्रामीण इलाकों में पंजाब की खेती की तारीफ सुनने को मिलती है. हालांकि, पंजाब के किसान भी अब परेशान हैं, लेकिन देश के अन्य हिस्सों की तुलना में वे खुशहाल हैं. किसी भी राज्य के किसान की खुशहाली की वजह क्या हो सकती है? इसका एक ही जवाब है- पैसा. किसी भी व्यवसाय में जैसे पैसे से पैसा बनता है, ठीक वैसे ही खेती में यदि किसान के पास पूंजी हो, तो वह ऊंची उड़ान भर सकता है.

एनएसएसओ (राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संस्था) के अनुसार, देश में पंजाब का किसान हर महीने सबसे ज्यादा 18,059 रुपये की कमाई करता है, जबकि बिहार का किसान देश में सबसे कम मात्र 3,558 रुपये प्रति महीना कमाता है. यह सर्वे रिपोर्ट तीन साल पुरानी है, लेकिन अाज भी किसानों की स्थिति में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ है.

पिछले दिनों इंदौर के एक किसान ने आलू की खेती में हुए घाटे का जब जिक्र किया, तो राष्ट्रीय मीडिया ने इस खबर को प्रमुखता दी.

इस बार इंदौर के किसान राजा चौधरी के लिए आलू की खेती करना बेहद घाटे का सौदा साबित हुआ. चौधरी ने इंदौर के चोयथराम मंडी में 20 क्विंटल आलू बेचा था, जिसके दाम मिले 1,075 रुपये. वहीं किसान को आलू मंडी में पहुंचाने में खर्च हो गये 1,074 रुपये. यानी किसान को महज एक रुपये का फायदा हुआ. इस किसान का दावा है कि इस बार तो उसे एक रुपये का मुनाफा भी हुआ है, लेकिन पिछली बार उसने 1620 रुपये के आलू बेचे थे, जबकि खर्च हुए थे 2,393 रुपये. घाटे को साबित करने के लिए चौधरी ने खर्च और आमदनी का बिल अपने पास रखा हुआ है.

बिहार के हरीश और मध्य प्रदेश के राजा चौधरी का जिक्र हम इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि किसान को वाजिब कीमत नहीं मिल रही है. हालांकि, बाजार में फसल की बढ़िया कीमत तय है, लेकिन खेत में नहीं. तो क्या किसान के पास बड़ा गोदाम होना चाहिए, जहां वह फसल का स्टॉक करे? यह बेहद परेशान करनेवाला सवाल है. हम किसान हर साल इस तरह की दिक्कतों का सामना करते हैं. बाजार भाव क्या होता है, यह हम समझ ही नहीं पाते हैं.

इस बार धान को लेकर भी बिहार के ग्रामीण इलाकों में आलू की तरह ही परेशानी हुई. हम किसान सरकारी दर पर यदि धान बेचना चाहें, तो तीन महीने तक हमें धान का स्टॉक रखना पड़ता है, फिर उसे प्राथमिक कृषि साख समिति (पैक्स) और बैंक का चक्कर अलग से लगाना पड़ता है. अब आप ही बतायें कि यदि हम पहले फसल न बेचें, तो खेत में नयी फसल को कैसे लगायेंगे? बात पूंजी पर आकर अटक जाती है और यहीं से आरंभ होता है किसानों का पलायन. बिहार का किसान देश के अन्य हिस्सों में मजदूर बन जाता है.

खेत और पूंजी के बीच एक रास्ता तैयार करना ही होगा, वह भले ही समूह बना कर खेती क्यों न हो. किसानों को मिल-बैठ कर इस पर विचार करना होगा. बात यह भी है कि हम किसान लोग अपनी लड़ाई लड़ने के लिए खुद ही तैयार नहीं हैं. हम तर्क गढ़ते हैं बस. आलू की कीमत कम मिलती है, तो भी हम शांत हैं, अपने भाग्य का रोना रोते हैं और अगली फसल में जुट जाते हैं, जबकि वक्त लड़ने का है. अब किसान को ललित निबंध से नाता तोड़ कर संगठित होकर खेती करना होगा.

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