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जुल्म की जद में महिलाएं

मनुष्य की संभावनाओं को समाप्त करने की सबसे बड़ी युक्ति रही है हिंसा और यह हिंसा ही भारत की आधी आबादी के सशक्तीकरण की राह में सबसे बड़ी बाधा है. हिंसा की चहुंओर निंदा होती है, महिलाओं पर होनेवाली हिंसा को रोकने के कानून हैं, महिलाओं की हिफाजत का मुद्दा संसद से लेकर सड़क तक […]

मनुष्य की संभावनाओं को समाप्त करने की सबसे बड़ी युक्ति रही है हिंसा और यह हिंसा ही भारत की आधी आबादी के सशक्तीकरण की राह में सबसे बड़ी बाधा है. हिंसा की चहुंओर निंदा होती है, महिलाओं पर होनेवाली हिंसा को रोकने के कानून हैं, महिलाओं की हिफाजत का मुद्दा संसद से लेकर सड़क तक गूंजता है, जागृति के अभियान चलते हैं. इन सबके बावजूद महिलाओं के विरुद्ध होनेवाली हिंसा का सिलसिला थम नहीं रहा है, बल्कि यह हिंसा उत्तरोत्तर बढ़ती ही जा रही है.
महिलाओं के विरुद्ध किये जानेवाले अपराध की दर चार सालों में 34 फीसदी बढ़ी है. वर्ष 2012 में यह आंकड़ा 41.7 फीसदी था, जो 2015 में बढ़ कर 53.9 फीसदी हो गया. महिलाओं की हिफाजत के मामले में देश के बाकी जगहों की बात क्या करें, जब देश की राजधानी में ही हालात बेहद शर्मनाक हैं. वर्ष 2016 के आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली में बलात्कार के प्रतिदिन औसतन छह मामले सामने आते हैं. ऐसे अपराधों की बढ़त के बारे में कुछ लोग बड़े ठंढे मिजाज से कहते हैं कि अब बात पहले जैसी नहीं रही. अगर महिलाओं पर अत्याचार हो रहा है, तो थाने में उसकी रिपोर्ट भी लिखायी जा रही है. यह संकेत करता है कि महिलाओं में अपने अधिकारों के लिए संघर्ष-भावना बढ़ी है और वे पहले की तरह चुपचाप अत्याचार को सह नहीं रही हैं. कुछ दूसरे लोग कहते हैं कि महिलाओं के विरुद्ध होनेवाले अपराध की बढ़ोत्तरी अर्थव्यवस्था के भीतर एक आलोड़न की सूचना है.
जीवन के हर क्षेत्र में महिलाओं की सार्वजनिकता बढ़ी है. पुरुषों के वर्चस्व के तमाम किले, चाहे वह सेना और पुलिस के महकमे हों, विज्ञान की दुनिया, सिने-संसार और मीडिया जगत या फिर सूचना-प्रौद्योगिकी का विशाल आभासी संसार हो, महिलाओं ने हर जगह दस्तक दी है. अपनी प्रतिभा के बूते ऊंचाइयां छू रही हैं महिलाएं. महिलाओं की यह सार्वजनिकता भारतीय पुरुषों के अहंकार पर एक चोट की तरह है. समाजशास्त्रियों का एक समूह बताता है कि सार्वजनिक दुनिया में महिलाओं की बढ़ती दावेदारी को पुरुषों का परंपरागत मन स्वीकार नहीं कर पाता. उन्हें लगता है कि महिलाओं के आने से उनके अपने अवसर सीमित हो रहे हैं. क्या अहंकार पर लगती इस चोट के कारण पुरुष महिलाओं पर हिंसक होता है? क्या वह महिलाओं को उनकी सार्वजनिक दावेदारी से रोकने के लिए हिंसा का सहारा ले रहा है? या फिर महिलाओं पर होनेवाली हिंसा की प्रमुख वजह कुछ और है?
क्या हमारी संस्कृति में ही कहीं कुछ ऐसा है, जो महिला को एक स्वतंत्र व्यक्तित्व की मालिक बनता देखने से हमें रोकता है? क्या जिस भारतीय संस्कृति पर हम नाज करते हैं, उसके मूल्य व्यक्तियों की आपसी बराबरी के खिलाफ हैं? ये गहरे प्रश्न हैं, जो जितने ज्यादा शोध-अनुसंधान की मांग करते हैं, उससे कहीं ज्यादा आत्मालोचना की.
महिलाओं के विरुद्ध होनेवाली हिंसा के बारे में एक बात एकदम तयशुदा है. विचित्र लग सकती है यह बात, लेकिन तथ्य यही है कि बाहर की दुनिया महिला की राह में अड़ंगे बाद में लगाती है, उसे पहले बड़ी बाधा का सामना अपने घर की चारदीवारी में ही करना पड़ता है. ज्यादातर मामलों में पति, देवर, सास या फिर भाई, पिता और मां किसी भारतीय महिला की संभावनाओं पर कुठाराघात करने के लिए हिंसा का सहारा लेते हैं. अचरज नहीं कि महिलाओं पर होनेवाली हिंसा के ज्यादातर मामलों में दोषी घर के ही सदस्य पाये जाते हैं.
बलात्कार के ज्यादातर मामलों में सगे-संबंधियों या फिर निकट परिचितों के दोषी होने की खबरें आये दिन छपती हैं. दहेज-प्रताड़ना से लेकर प्रेम-प्रसंगों में पंचायती पेड़ पर महिलाओं के गले में फंदा डाल कर लटकानेवाले अपने ही घर के निकलते हैं. यह विडंबना है कि घर दुनिया की सबसे ज्यादा सुरक्षित जगह होती है, लेकिन स्त्रियों के लिए यही घर उस समय सबसे ज्यादा असुरक्षित साबित हो सकती है, जब वह अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व के निर्माण के लिए कोई उपक्रम करे, अपनी पसंद-नापसंद या अधिकार की दावेदारी करे. घर में खड़ी इस बाधा से लड़ना भारतीय स्त्री की बड़ी चुनौतियों में एक है और इसकी राह आसान नहीं है, क्योंकि हमारे घरों में स्त्री के विरुद्ध की जानेवाली हिंसा को हर उम्र के लोगों में व्यापक स्वीकृति प्राप्त है.
किशोरों के बारे में साल 2012 में यूनिसेफ की एक रिपोर्ट आयी थी. इसमें कहा गया था कि 15-19 साल के 57 फीसद नौजवान मानते हैं कि किसी पति का अपनी पत्नी को प्रताड़ित करना जायज है. संयुक्त राष्ट्र की एक और रिपोर्ट आयी 2014 के नवंबर महीने में ‘मैस्कुलिनिटी, इंटीमेट पार्टनर एंड सन प्रीफेरेंस’ नाम से, जो प्रौढ़ पुरुषों के सर्वेक्षण से तैयार की गयी थी.
हरियाणा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, पंजाब, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के सर्वेक्षण पर आधारित इस रिपोर्ट का एक निष्कर्ष था कि 60 फीसदी भारतीय अपने निकट संबंधी स्त्री को प्रताड़ित करना सही मानते हैं. निकट संबंधों के दायरे में होनेवाली हिंसा की इस व्यापक स्वीकृति से लड़े बिना यह कैसे सोचा जा सकता है कि भारतीय स्त्री सार्वजनिक जीवन में बराबरी की दावेदारी पेश कर सकेगी?

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