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बैंकिंग सेवाओं पर सेवा शुल्क

बिभाष कृषि एवं आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ विमुद्रीकरण के कारण नकदी की किल्लत से निजात मिलती हुई दिख ही रही थी कि बैंकिंग जगत से कुछ नयी असहज कर देनेवाली खबरें आनी शुरू हो गयीं. कई बैंकों ने एक-एक कर नकदी लेनदेन को सीमित करने के उद्देश्य से लेनदेन पर सेवा शुल्क लगाने की घोषणा […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 8, 2017 6:40 AM
बिभाष
कृषि एवं आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ
विमुद्रीकरण के कारण नकदी की किल्लत से निजात मिलती हुई दिख ही रही थी कि बैंकिंग जगत से कुछ नयी असहज कर देनेवाली खबरें आनी शुरू हो गयीं. कई बैंकों ने एक-एक कर नकदी लेनदेन को सीमित करने के उद्देश्य से लेनदेन पर सेवा शुल्क लगाने की घोषणा करनी शुरू कर दी. एक बड़े सरकारी बैंक ने तो खातों में न्यूनतम बैलेंस रखने की शर्त भी रख डाली. सोशल मीडिया पर इसको लेकर तीखी बहस चल निकली है.
पिछली शताब्दी की शुरुआत से ही वित्तीय समावेशन यानी आमजन तक बैंकिंग सेवाएं पहुंचाना विचार और चिंता का विषय बना हुआ है. फेमीन कमीशन की 1901 की रिपोर्ट के आधार पर सन् 1904 में कोऑपरेटिव सोसाइटी एक्ट लागू किया गया. स्वतंत्र भारत में साल 1954 के ऑल इंडिया रूरल क्रेडिट सर्वे कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर 1955 में एक सरकारी बैंक, स्टेट बैंक की स्थापना की गयी.
आमजन तक बैंकिंग सुविधा पहुंचाने के उद्देश्य ही से बाद में बैंकों का राष्ट्रीयकरण और ग्रामीण बैंकों की स्थापना की गयी. बीस-सूत्री कार्यक्रम भी इसी तरह का एक अभियान था. मौजूदा दौर के वित्तीय समावेशन की नींव वर्ष 2005-06 के मौद्रिक नीति और केंद्रीय बजट में रखी गयी. वित्तीय समावेशन कार्यक्रम को पहले ‘स्वाभिमान’ नाम दिया गया और अब नयी सरकार के समय में ‘प्रधानमंत्री जनधन योजना’ का नाम दिया गया है. यह सब विश्व स्तर पर सितंबर 2000 में मिलेनियम शिखर सम्मेलन में तय मिलेनियम डेवलपमेंट लक्ष्य को ध्यान में रख कर गरीबी उन्मूलन के उद्देश्य से किया गया.
जी-20 द्वारा 2010 में जारी इनोवेटिव फाइनेंशियल इन्क्लूजन रिपोर्ट में स्पष्ट उल्लेख है कि बैंक खातों में न्यूनतम बैलेंस का प्रावधान बैंक सेवा से वंचित लोगों को बैंकिंग की ओर आकर्षित करने में अड़चन पैदा करता है. रिजर्व बैंक के तत्कालीन डिप्टी गवर्नर डॉक्टर केसी चक्रवर्ती ने 2012 में कुआलालंपुर में एक सेमिनार में कहा था कि बैंकिंग सेवाओं पर प्रभार गरीबों को बैंकिंग सेवाओं से वंचित रखने का प्रमुख कारण है.
ऐसा नहीं है कि रिजर्व बैंक ने वित्तीय समावेशन के कारण बैंकिंग सेवाओं पर प्रभार लगाने से मना किया है.
बैंकों के लिए फाइनेंशियल इन्क्लूजन लाभकारी होना चाहिए, नहीं तो बैंक इससे कतरायेंगे. लेकिन बैंक, खासतौर पर सरकारी क्षेत्र के बैंक, सेवा प्रभार लगाने से परहेज करते रहे हैं, ताकि ज्यादा-से-ज्यादा लोगों को बैंकिंग सेवाओं की ओर आकर्षित किया जा सके. वर्तमान सरकार ने भी पीएमजेडीवाइ के अंतर्गत बैंकिंग सेवाओं के प्रसार का जबरदस्त अभियान चलाया. अब जब बैंक एकाएक और धड़ाधड़ बैंकिंग सेवाओं पर प्रभार लगाने की घोषणा कर रहे हैं, तो कुछ प्रश्न उठना स्वाभाविक है. क्या अब नकदी लेनदेन को हतोत्साहित किया जायेगा? या क्या विमुद्रीकरण से नकदी की किल्लत कुछ और समय तक बने रहने की संभावना है? अथवा क्या बैंकों की कमाई के अन्य साधन सूख गये हैं कि लोगों से सेवा शुल्क वसूल कर कमाई का रास्ता अपनाया गया है?
बैंकों की कमाई का प्रथम और प्रमुख स्रोत है कर्ज. दरअसल, बैंकिंग की परिभाषा का प्रमुख तत्व है कर्ज बांटने के लिए लोगों से धन इकट्ठा करना. बैंकों की कमाई का दूसरा स्रोत है ऋण देने से बचे रह गये धन को बांड, ट्रेजरी बिल आदि में निवेश करना. कमाई का तीसरा साधन है सेवाओं पर लगाये गये प्रभार.
रिजर्व बैंक की ही रिपोर्टों के मुताबिक, बैंकों द्वारा ऋण देने की गति में तेजी से गिरावट आयी है. फिर अदा न होने की स्थिति में ऋण खातों में ऋण अदा होने तक ब्याज लगाना बंद कर दिया जाता है. अब बैंकों को रिस्ट्रक्चर्ड ऋण को भी एनपीए मानते हुए उन पर प्रॉविजन करना है.
अत: बैंकों में धीमी गति से ऋण बंटने और एनपीए बढ़ने के कारण ब्याज से कमाई पर दबाव बना हुआ है. बांड और ट्रेजरी आदि से कमाई बाजार की परिस्थितियों के कारण अनिश्चितता में बनी रहती है. अब बचता है सेवा शुल्क, जो उन्हें बिना खतरा उठाये मिलता है. सेवा शुल्क को बैंकिंग शब्दावली में ‘मिठाई’ या ‘मलाई’ कहते हैं. बैंक चाहते हैं कि वे अपने ऊपरी खर्चों की भरपाई सेवा शुल्क से करें.
बैंकों की कमाई के परंपरागत और मुख्य स्रोत ऋण से प्राप्त होनेवाले ब्याज की अगर अनदेखी की गयी, तो आगे मुसीबतें बढ़ सकती हैं. ऋण संवितरण को अगर बैंक शाखा स्तर पर देखें, तो खेती और छोटे उद्यमियों के लिए बैंकों से ऋण मिलना मुश्किल बना हुआ है.
छोटे उद्यमों को बैंक ऋण दे सकें, इसलिए सन् 2001 से भारत सरकार ने सीजीटीएमएसइ नामक एक क्रेडिट गारंटी योजना शुरू कर रखी है. बैंक इस योजना में बिना किसी कोलेटरल और जमानत के उद्यमियों को दो करोड़ रुपये तक का ऋण दे सकते हैं. रिजर्व बैंक के निर्देशों के अनुसार, इस योजना का लाभ लेते हुए सूक्ष्म और छोटे उद्यमियों को दस लाख रुपये तक के ऋण अनिवार्य रूप से बिना कोलेटरल के दिये जाने चाहिए. लेकिन, सरकारी आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2015-16 में योजना की प्रगति में गिरावट आयी है, जबकि इस दौरान मुद्रा योजना भी शुरू की गयी. स्पष्ट है बैंक शाखाएं बिना कोलेटरल के ऋण प्रदान नहीं कर रही हैं और खेती की तरह छोटे उद्यम भी गैर-संस्थागत स्रोतों से ऋण लेने के लिए बाध्य हैं. एक तरफ शाखा प्रबंधक ऋण अदा न होने के कारण फंसने के डर से ऋण संवितरण से बचना चाहता है, तो दूसरी तरफ क्रेडिट गारंटी योजना के अंतर्गत ऋण के एनपीए होने पर दावा पाना भी कठिन है. बैंकों को सामान्य जोखिम और फ्रॉड में अंतर करते हुए शाखा प्रबंधकों को ऋण संवितरण के लिए प्रोत्साहित करना पड़ेगा.
अगर सेवा शुल्क नकदी लेनदेन को हतोत्साहित करने के लिए प्रारंभ किया गया है, तो देश में मजबूत पेमेंट इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी के चलते दिक्कतें आयेंगी. कई ग्रामीण बैंक अभी भी मोबाइल और इंटरनेट बैंकिंग की सुविधा ही नहीं देते. तब तक विमुद्रीकरण से हुई नकदी की कमी की भरपाई करनी पड़ेगी.
बैंकों की कमाई बढ़ाने के लिए लक्ष्य शाखा से लेकर काॅरपोरेट स्तर पर कर्ज जारी करने के लिए स्वस्थ वातावरण तथा अधिक से अधिक ऋण संवितरण, लचीले क्रेडिट गारंटी नियम और नकद विहीन डिजिटल लेनदेन के लिए मजबूत पेमेंट इन्फ्रास्ट्रक्चर चाहिए. सेवा शुल्क से कमाई वित्तीय समावेशन के उद्देश्यों को पराजित ही करेगा.

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