क्या हिंदी ज्ञान की भाषा नहीं?

प्रभात रंजन कथाकार हिंदी में किताब किसको माना जाता है- केवल कविता, कहानी या उपन्यास को? यह एक ऐसा सवाल है, जो हर साल कक्षा में कोई न कोई विद्यार्थी जरूर पूछता है. आजकल यह सवाल और उभरने लगा है, क्योंकि सोशल मीडिया पर, मीडिया में इस बात को लेकर खूब चर्चा होती है कि […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 9, 2017 6:49 AM
प्रभात रंजन
कथाकार
हिंदी में किताब किसको माना जाता है- केवल कविता, कहानी या उपन्यास को? यह एक ऐसा सवाल है, जो हर साल कक्षा में कोई न कोई विद्यार्थी जरूर पूछता है. आजकल यह सवाल और उभरने लगा है, क्योंकि सोशल मीडिया पर, मीडिया में इस बात को लेकर खूब चर्चा होती है कि हिंदी में किताबों के बाजार में वृद्धि हो रही है, हिंदी के पाठकों की तादाद में वृद्धि हो रही है. एलिट समझे जानेवाले संस्थानों में हिदी को लेकर उत्सव आयोजित किये जाने लगे हैं. अभी हाल में ही एक संस्था का सर्वे सामने आया है, जिसमें यह दिखाया गया है कि सोशल मीडिया पर हिंदी में लिखे गये लेखों आदि के शेयर अंगरेजी के मुकाबले अधिक हुए हैं. अगर यही ट्रेंड रहा, तो इस साल कम-से-कम सोशल मीडिया पर हिंदी अंगरेजी को पीछे छोड़ देगी. अच्छा लगता है यह पढ़ कर. लेकिन सवाल है कि कौन सी हिंदी?
यह सवाल बेचैन करता है. आखिर हिंदी क्या किस्से-कहानियों, कविता-शविता की ही भाषा है. कुछ और आंकड़े याद आते हैं. वर्ष 2015-16 के दौरान सबसे अधिक उपन्यास पत्रकारों के आये.
टीवी चैनलों, अखबारों में काम करनेवाले पत्रकारों के. कुछ अच्छे भी थे, कुछ की बेहद चर्चा भी हुई, कुछ बिकी भी. लेकिन, सवाल अब यह उठता है कि पत्रकार लोग राजनीति, समाज से जुड़े अन्य मुद्दों को लेकर हिंदी में किताब क्यों नहीं लिखते हैं? वे साहित्य लिखने के लिए ही इस भाषा का चुनाव क्यों करते हैं? समाज, राजनीति पर लिखने के लिए कई हिंदी पत्रकार, अध्यापक भी अंगरेजी का रुख करते देखे गये हैं.
ऐसा नहीं है कि हिंदी के पाठक बस कविता-कहानी ही पढ़ना चाहते हैं और उनकी रुचि समाज, राजनीति से जुड़े मुद्दों में नहीं होती है. असल में स्थिति इसके ठीक उलट है. बीते वर्षों में अनुवाद के माध्यम से हिंदी में साहित्य से अधिक दूसरी विधाओं की किताबें आयी हैं. पहले हिंदी में सिर्फ चर्चित उपन्यासों के अनुवाद छपते थे, पर अब अन्य विधाओं की चर्चित किताबों के अनुवाद भी छपने लगे हैं. फैशन और खान-पान की किताबों के अनुवाद खूब छपते हैं.
आश्चर्यजनक है कि हिंदी पट्टी के खान-पान पर अंगरेजी में ज्यादा किताबें आयी हैं. इनको पढ़ने का रुझान बढ़ा है, लेकिन कोई किताब मूल रूप से हिंदी में नहीं आयी, जो हिंदी पट्टी के खान-पान की विशेषताओं को लेकर हो.
इसी तरह एक और विधा यात्रा वृत्तांत की है. पहले जब लोग बहुत कम यात्राएं करते थे, हिंदी लेखकों के पास यात्राओं के साधन कम होते थे. आजकल हिंदी पट्टी में पर्यटन में वृद्धि हुई है, लेकिन यात्रा-वृत्तांत की पुस्तकें कम लिखी जा रही हैं. सबसे बड़ा उदाहरण राजनीति का है. कहते हैं कि बिहार-यूपी वालों के खून में राजनीति होती है, लेकिन इनकी भाषा में राजनीतिक विश्लेषण की किताब प्रकाशित नहीं होती है.
इसके लिए केवल लेखकों को जिम्मेवार नहीं माना जा सकता है. हिंदी का प्रकाशक अंगरेजी में प्रकाशित राजनीति या किसी अन्य विषय की पुस्तक के हिंदी अनुवाद को प्रकाशित करने में लाखों रुपये खर्च करता है, लेकिन वह इन विषयों पर मूल रूप से हिंदी में किताब प्रकाशित करने की दिशा में कोई प्रयास नहीं करते.
जब तक हिंदी में विविधता नहीं आयेगी, अलग-अलग विषयों को लेकर उसमें मूल रूप से किताबों का लेखन नहीं होगा, तब तक हिंदी का यह विस्तार एकांगी ही बना रहेगा. हिंदी सचमुच में तभी शीर्ष भाषा बन पायेगी, जब साहित्य के अलावा ज्ञान के अन्य क्षेत्रों में भी आत्मनिर्भर भाषा बन पायेगी. इसके बिना हिंदी के विस्तार के सारे आंकड़े दिल के बहलाने को अच्छा खयाल है!

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