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आतंक के व्यापक तार

संदीप मानुधने विचारक, उद्यमी एवं शिक्षाविद् विश्व राजनीति में जो प्रमुख मुद्दे पूर्ण रूप से हावी हो गये हैं, और जिनके इर्द-गिर्द अब राजनीतिक विमर्श और तर्क चलने लगे हैं, वे हैं- गरीबी और विपन्नता, जलवायु परिवर्तन और कृषि विपदाएं, उन्नत बनाम गरीब देश, आव्रजन एवं नौकरियां, और आतंकवाद. जब 1970 में रूस (सोवियत संघ) […]

संदीप मानुधने
विचारक, उद्यमी एवं शिक्षाविद्
विश्व राजनीति में जो प्रमुख मुद्दे पूर्ण रूप से हावी हो गये हैं, और जिनके इर्द-गिर्द अब राजनीतिक विमर्श और तर्क चलने लगे हैं, वे हैं- गरीबी और विपन्नता, जलवायु परिवर्तन और कृषि विपदाएं, उन्नत बनाम गरीब देश, आव्रजन एवं नौकरियां, और आतंकवाद.
जब 1970 में रूस (सोवियत संघ) अफगानिस्तान सरकार के बुलावे पर वहां घुसा, तब एक ऐसी वैश्विक लड़ाई की बुनियाद रख दी गयी, जिसमें आनेवाले वर्षों में अनेकों हिंसक मोड़ आनेवाले थे. अपने देश में अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए अफगान लड़ाकों को अमेरिका और सीआइए ने रूस के प्रभुत्व के डर से बहुत मदद दी. कुछ ही वर्षों में, सोवियत संघ का तो अंत हो गया, और तालिबान के रूप में एक नयी ताकत उभर आयी. विश्व में आज जो सबसे खतरनाक आतंकी गुट कार्यरत हैं, उनमें हैं आइएस, बोको हराम, तालिबान और अल कायदा.
आइएस ने सीरिया और इराक में अपना ‘देश’ ही बना लिया. बोको हराम के भयानक कांडों की सूची नाइजीरिया के आधुनिक इतिहास के काले पन्नों जैसी है. तालिबान ने अब भूराजनीतिक खेल खेलते हुए चीन से बातचीत का रास्ता खुला रखा है, चूंकि चीन को अपनी ओबीओआर प्रोजेक्ट की आस्तियों के लिए सुरक्षा चाहिए थी. वहीं अल कायदा अपने नेता ओसामा की मृत्यु के बाद कमजोर पड़ गया. शायद उसके कमजोर पड़ने का ही सबक आइएस ने सीखा और अपने परिसंघीय (फेडरेटेड) ढांचे को बनाया, जिसमें दुनियाभर में फैले अपने लड़ाकों को अलग-अलग देशों में हमले करने की क्षमता से लैस कर रखा गया.
दुनियाभर में इसके राजनीतिक प्रभाव अब दिखने लगे हैं. अमेरिका की पूरी राजनीति ध्रुवीकरण में घिर गयी है, जिसके चलते शांतिप्रिय समुदाय (जैसे कि भारतीय) नस्लीय हिंसा की चपेट में आ जाते हैं. 1990 से कश्मीर में हिंसक आतंकवाद और अलगाववादी घटनाओं ने जोर पकड़ लिया. आज भारत की बहुत सी ऊर्जा, संसाधन और समय इन पर खर्च होता है, और देश में भी वैचारिक लड़ाइयां होती ही रहती हैं. भारत की राजनीति भी, आजादी के नारे लगानेवालों और असहिष्णुता पर चलते विवादों में घिर गयी है. विकास और रोजगार के मुद्दे गौण होकर चुनावी शोर और तीखे तर्कों में कहीं खो गये से दिखते हैं.
आतंक एक सोच है, जिससे आतंकी घटनाएं जन्मती हैं. आधुनिक आतंकवाद के पांच कारण साफ दिखते हैं-
पहला: किसी देश या समुदाय का अचानक से हिंसा की चपेट में आ जाना और बड़े स्तर पर जड़विहीन हो जाना. आइएस अचानक से इतना शक्तिशाली इसीलिए बना, क्योंकि इराक टूट गया, और वैकल्पिक लोकतांत्रिक सरकार का मॉडल तैयार ही नहीं था. वही आइएस, जिसका पहला हमला भारत की धरती पर 7 मार्च को हुआ, जैसा अखबारों से पता चला.
दूसरा: किसी बड़ी शक्ति द्वारा अपने स्वार्थ के लिए ऐसे हितों को साधने का प्रयास करना, जिनके दूरगामी परिणामों में शामिल हैं अस्थिरता और असंतोष की आग, जो उस बड़ी शक्ति को ही चोट पहुंचा देती है. वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के दोनों टॉवरों को गिराना उन आतंकियों का काम था, जिन्हें उस अल कायदा ने तैयार किया, जो सऊदी अरब में अमेरिकी मौजूदगी से बेहद खफा था, और जिसे पनाह दी उस तालिबान ने, जिनके लड़कों को अमेरिका ने ही सबसे पहले धन और हथियार रूस के विरुद्ध मुहैया कराये थे.
तीसरा: धार्मिक कट्टरता, जो इस संभावना को खारिज कर देती है कि अन्य विचारों वाली सभ्यताएं (या एक ही धर्म के अलग पंथ) भी सह-अस्तित्व करें, और भाईचारे के साथ रहें. जिस पाकिस्तान के ‘डीप स्टेट’ ने अपना जोर दूसरे देशों में आतंकी नेटवर्क फैलाने में लगाया, वही पाकिस्तान सूफी धर्म स्थलों पर हमले झेल रहा है.
चौथा: इंटरनेट और सूचना प्रौद्योगिकी का फैलाव, जिसने हर उस व्यक्ति को वह मूल जानकारी (विस्फोटकों की, भड़काऊ प्रचार सामग्री की आदि) आसानी से मुफ्त में उपलब्ध करा दी, जो या तो नाराज था, या नादान था, या बेरोजगार था. और ऐसे अनेक युवा, राह भटक कर आतंक की राह पर चल पड़ते हैं.
पांचवां: तेजी से फैलती बेरोजगारी और प्राकृतिक आपदाओं से उपजी समस्याएं (फसलों का नष्ट हो जाना, धारणीय कृषि नहीं कर पाना, कीमतों का अचानक से गिर जाना आदि) से उत्पन्न होती विपदाएं, जिनमें कुंठाग्रस्त लोग समझ ही नहीं पाते कि उनकी क्या गलती है. सीरिया में भयंकर सूखे ने भी वर्तमान स्थिति में अपना योगदान दिया है.
तो अब आगे का रास्ता क्या है? जब आधुनिक समाज ने तकनीकी और आधुनिकता को स्वीकार कर ही लिया है, तो पीछे जाकर देशों को अलग-थलग कर पाना तो मुश्किल होगा. समाधान केवल सकारात्मक और कठोर प्रयास से ही निकलेंगे. इन चार तरीकों के प्रयोग से हम काफी हद तक आतंकी सोच और उससे पैदा होती घटनाओं को रोक सकते हैं-
सबसे पहले: देशों को आपस में शत्रुता के बजाय मित्रता तलाशनी होगी. जिस चीन ने भारत की बात न मानते हुए ‘गुड टेररिस्ट, बैड टेररिस्ट’ योजना पर काम किया, आज आइएस ने उसी के खिलाफ आतंकी योजना की घोषणा कर दी है. चीन को भी एहसास हो जायेगा कि हिंसा कोई स्थायी समाधान नहीं है.
उसके बाद: हमारे राजनेताओं को (सभी रंगों और विचारों के) यह समझना होगा कि जिस डेमोग्राफिक डिविडेंड की बात सतत रूप से 20 सालों से हो रही है, उसे अमली जाम पहनाना भी उन्हीं का काम है. नहीं तो खाली दिमाग शैतान का घर ही रहेगा. रोजगार निर्माण सही ढंग से कर, हम उन संभावित फिसल सकनेवाले दिमागों को सकारात्मक दिशा दे सकते हैं. बड़ी संख्या में लोग यदि संपन्नता की संभावनाओं से दूर रहेंगे, तो कैसे एकजुटता और शांति की भावना बनेगी?
और अंत में: सभी धर्मों के गुरुओं को आगे आकर, अपने अनुयायिओं को समझाना होगा कि हिंसा समाधान नहीं हो सकता. बातचीत और लोकतांत्रिक विरोध से ही बदलाव लाया जा सकता है. हर उस छोटी चिंगारी को चिह्नित कर, बातचीत के जरिये हमें सही रास्ते पर लाने का प्रयास सतत करना होगा. पुलिस और सैन्य बल तो अपना ठोस कार्य करेंगे ही, किंतु यदि समाज के नेतृत्व ने सारी जिम्मेवारी उन्हीं पर छोड़ दी, तो समाधान तात्कालिक ही निकलेंगे. पिछले 100 वर्षों का इतिहास यही दिखाता है.

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