यत्र नार्यस्तु पूज्यंते

डॉ सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर सभी सोशल नेटवर्कों पर महिलाओं के समर्थन में महिलाओं से भी ज्यादा पुरुष छाये रहे, मानो उनसे ज्यादा महिलाओं का हितैषी कोई न हो. ज्यादातर ने बताया कि यह दिवस-फिवस सब विदेशी चोंचले हैं, हमारे यहां तो हर दिवस महिला दिवस है. सोचने पर मुझे भी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 10, 2017 6:09 AM

डॉ सुरेश कांत

वरिष्ठ व्यंग्यकार

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर सभी सोशल नेटवर्कों पर महिलाओं के समर्थन में महिलाओं से भी ज्यादा पुरुष छाये रहे, मानो उनसे ज्यादा महिलाओं का हितैषी कोई न हो. ज्यादातर ने बताया कि यह दिवस-फिवस सब विदेशी चोंचले हैं, हमारे यहां तो हर दिवस महिला दिवस है.

सोचने पर मुझे भी लगा, कि हां, हमने तो प्राचीन काल से ही स्त्रियों का ध्यान रखा है, उनकी पूजा की है. हमारी तो आकांक्षा ही यही रही है- इक बुत बनाऊंगा तेरा और पूजा करूंगा. पूजा करने के चक्कर में हम महिलाओं का बुत ही नहीं बनाते, बल्कि खुद उन्हें भी बुत यानी पत्थर बना डालते हैं, वह अलग बात है. अपने यहां तो हर घर में एक पथराई हुई अहिल्या मिल जायेगी, जिसे पुनर्जीवित होने के लिए सदैव पति-परमेश्वर की लातों, सॉरी, चरणों का स्पर्श सहज उपलब्ध है.

यह भली-भांति समझ कर कि स्त्री स्वतंत्रता पाने योग्य नहीं है, प्रारंभ से ही हम स्त्री की सभी रूपों में रक्षा करते आये हैं. बाल्यावस्था में पिता उसकी रक्षा करता है, युवावस्था में पति, बुढ़ापे में पुत्र… इसका एकमात्र कारण यह कि वह बेचारी स्वतंत्रता की अर्हता नहीं रखती- पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने। रक्षंति स्थविरे पुत्राः न स्त्री स्वातंत्र्यं अर्हति॥

प्राचीन काल में बेटियों को ‘दुहिता’ कहा जाता था, क्योंकि उसे गायों का दूध दुहने का उदात्त दायित्व सौंपा गया था. दूध पीने का अपेक्षाकृत कम उदात्त दायित्व अलबत्ता बेटों को दिया जाता था. काम का सारा बोझ बेटियों पर डाल देना ठीक जो नहीं था. बेटी फिर यही विवेकसम्मत व्यवहार अपने बेटे-बेटियों के साथ करती थी, जिन्हें तब दोहित्र-दोहित्रा और आज दोहता-दोहती कहते हैं. इस तरह परंपरा पुष्ट होती चली जाती थी, मूल्य भले ही पुष्ट न होते रहे हों.

नारियों के सम्मान को हमने देवताओं की कृपा से भी जोड़ा- यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता. अर्थात‍्, जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता रमते हैं. देवताओं के रमने के लिए ही हमने नारियों की पूजा आवश्यक समझी, अन्यथा नहीं. और फिर तो जो भी वहां आ-आकर रमते गये. सब देवता समझ लिये गये.

परंपरा से ही सभी पुरुष स्त्रियों की सेवा में इतने हाजिर रहते आये हैं कि उसे कुछ बोलने तक नहीं दिया जाता.

यह मार्ग उन्हें ऋषि याज्ञवल्क्य ने दिखाया. एक बार जब राजा जनक ने सोने से मढ़े सींगों वाली 1000 उम्दा गायों के मेगा-प्राइज वाला एक शास्त्रार्थ आयोजित किया, तो याज्ञवल्क्य ने शास्त्रार्थ-कक्ष में घुसने से पहले ही अपने शिष्यों से कह दिया कि खोल कर ले जाओ इन गायों को, जीतना तो हमें ही है. शास्त्रार्थ का विषय था- पृथ्वी किस पर टिकी है? एक काबिल भूगोलवेत्ता की तरह याज्ञवल्क्य ने बताया कि पृथ्वी कछुए पर टिकी है. इस पर गार्गी ने पूछा कि कछुआ किस पर टिका है? क्योंकि अगर पृथ्वी कछुए पर टिकी है, तो कछुआ भी तो किसी पर टिका होना चाहिए. तुर्की भाषा न जानने के बावजूद याज्ञवल्क्य ने तुर्की-बतुर्की जवाब दिया कि हाथी पर. गार्गी ने फिर पूछा- और हाथी किस पर टिका है? याज्ञवल्क्य समझ गये कि यह स्त्री परेशान करेगी.

मैं जो भी कहूंगा, यह पूछेगी कि वह किस पर टिका है? लिहाजा उन्होंने सारी बातों का एक तोड़ पेश किया कि सब चीजें ब्रह्म पर टिकी हैं. लेकिन गार्गी ने फिर पूछ लिया- और ब्रह्म? वह किस पर टिका है? अब तो याज्ञवल्क्य आगबबूला हो गये. बोले- यह अतिप्रश्न है गार्गी, पूछेगी तो तेरा सिर धड़ से अलग हो जायेगा!

‘अतिप्रश्न’ यानी ऐसा प्रश्न, जो नहीं पूछना चाहिए. क्यों नहीं पूछना चाहिए, आपको भी यह नहीं पूछना चाहिए, अगर सिर सलामत चाहिए.

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