डूबे हुए कर्जे के बोझ और नोटबंदी की मुश्किलों से जूझते बैंकों को फर्जीवाड़े और धांधली का भी सामना करना पड़ रहा है. रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, मौजूदा वित्त वर्ष के पहले नौ महीनों में यानी अप्रैल से दिसंबर के बीच सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बैंकों को फर्जीवाड़े से 17,750.27 करोड़ की चपत लगी है. अब तक 3,870 मामले दर्ज किये गये हैं और 450 कर्मचारियों पर मिलीभगत का आरोप भी है. नोटबंदी के दौरान भी कई ऐसे मामले सामने आये थे, जिनमें बैंकों के कर्मचारी नोट बदलने और नयी मुद्रा देने में धांधली कर रहे थे. रिजर्व बैंक और अनेक बैंकों के कुछ अधिकारी भी हिरासत में लिये गये थे. पिछले कुछ दिनों से एटीएम से नकली नोट निकलने की शिकायतें भी मिल रही हैं.
पिछले साल लाखों एटीएम कार्डों की सूचनाएं हैक करने की घटना भी हो चुकी है. सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक साइबर हमले की भरपाई के लिए बीमा करा रहे हैं. रिजर्व बैंक ने बैंकों को बड़े फर्जीवाड़ों की जांच के लिए साझा फोरेंसिक तंत्र स्थापित करने की सलाह दी है. अब सवाल यह उठता है कि जब बैंक के कर्मचारी और लचर साइबर सुरक्षा का फायदा उठानेवाले हैकर बैंकों की लूट पर आमादा हैं, तो बैंकिंग प्रणाली को चुस्त-दुरुस्त बनाने के लिए त्वरित स्तर पर कोशिशें क्यों नहीं हो रही हैं. डिजिटल भुगतान के बढ़ने से मोबाइल और कार्ड-स्वैपिंग मशीनों के जरिये लेन-देन का विस्तार हो रहा है.
ऐसे में बैंकों को प्रबंधन और तकनीक की बेहतरी पर ध्यान देना होगा. कुछ दिन पहले टोल टैक्स चुकानेवाले एक व्यक्ति के कार्ड से 40 रुपये की जगह चार लाख का भुगतान हो गया. एटीएम और क्रेडिट कार्ड से जुड़ी गड़बड़ियों की संख्या भी बहुत है. डाटा चुराने और अवैध कॉल सेंटरों से लोगों की जानकारियां प्राप्त कर पैसे का गबन आम हो चला है. एक तरफ बैंक दावा तो करते हैं कि उनका तंत्र सुरक्षित है और कई मामलों में वे ग्राहकों के नुकसान की भरपाई भी करते हैं.
पर यह नाकाफी है. पीड़ितों को शिकायत दर्ज कराने से लेकर सुनवाई तक कई मुश्किलें उठानी पड़ती हैं. ऐसे में न सिर्फ सुरक्षा को मजबूत बनाये जाने की जरूरत है, बल्कि धांधली और गबन के मुकदमों के तुरंत निपटारे का भी इंतजाम होना चाहिए. अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य और देश के धन-संपत्ति की रखवाली में चूक बेहद नुकसानदेह साबित हो सकती है.