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चुनावी नतीजों से निकले सबक

पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक पांच राज्यों में चुनाव के बहुप्रतीक्षित नतीजे आ चुके हैं और जिनमें सभी राजनीतिक दलों के सीखने को सबक भी शामिल हैं. उत्तरप्रदेश में भाजपा, खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह हार्दिक बधाई के पात्र हैं. कमजोर तथा विभाजित विपक्ष का फायदा उठाते हुए भाजपा […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 15, 2017 6:08 AM

पवन के वर्मा

लेखक एवं पूर्व प्रशासक

पांच राज्यों में चुनाव के बहुप्रतीक्षित नतीजे आ चुके हैं और जिनमें सभी राजनीतिक दलों के सीखने को सबक भी शामिल हैं. उत्तरप्रदेश में भाजपा, खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह हार्दिक बधाई के पात्र हैं. कमजोर तथा विभाजित विपक्ष का फायदा उठाते हुए भाजपा ने विशेषकर अगड़ी जातियों, गैर-यादव पिछड़ी जातियों तथा गैर-जाटव दलितों पर केंद्रित अपनी मुहिम की एक बारीक योजना बनायी और उसे सफलतापूर्वक अंजाम दिया. इसके साथ ही, नरेंद्र मोदी द्वारा प्रदर्शित अथक ऊर्जा भी इसमें एक अहम कारक रही.

फिर भी, भाजपा के लिए इस मुगालते पर पहुंच जाना कि अब वह चुनावी अखाड़े की अपराजेय योद्धा बन चुकी है, एक अतिआशावादी सोच होगी. शिरोमणि अकाली दल की साझीदारी में वह पंजाब गंवा चुकी है, जहां कांग्रेस की विजय एक निर्णायक तथ्य के रूप में सामने आयी है.

गोवा में भी इसकी गद्दी को सफलतापूर्वक चुनौती दी गयी है. जैसा बिहार तथा दिल्ली के चुनावों ने दिखाया, राष्ट्रीय परिदृश्य पर 2014 की जोरदार विजय भी इसकी कोई गारंटी नहीं है कि वह रुझान प्रत्येक राज्यस्तर पर भी बना रहेगा. 2019 के पहले यमुना में बहुत पानी बह चुका होगा. गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में चुनाव होने हैं और यह देखना बाकी है कि भाजपा अपने वर्तमान मत अनुपात का कितना हिस्सा अपने पाले में बनाये रखेगी.

यह विपक्ष से लेकर भाजपा तक के लिए परिस्थितियों पर गौर करने का वक्त है. यदि विपक्ष एक विश्वसनीय कथ्य और एकता के ठोस सांगठनिक तानेबाने से बुने गंठबंधन के साथ सामने नहीं आता, तो इसके असर यों ही छिटफुट बने रहेंगे. उसे केवल प्रतिक्रियात्मक ही न रह कर, व्यक्तिगत अहंकारों से परे, सावधानीपूर्वक रचित साझे न्यूनतम कार्यक्रम और शासन के स्पष्ट एवं यकीन करने योग्य एजेंडे के साथ उतरने की जरूरत है.

विपक्ष को यह भी समझ लेना होगा कि खासकर नरेंद्र मोदी के अंतर्गत भाजपा एक दुर्जेय राजनीतिक विरोधी है. मोदी में सत्ता के लिए एक अभूतपूर्व इच्छाशक्ति है, उनकी वाकपटुता बेजोड़ है और सत्ता पर उनकी पकड़ व्यक्तिगत ऊर्जा के एक वृहत निवेश पर आधारित है. अपने व्यक्तिगत प्रयासों तथा अपने पद के प्रताप से उनकी पहुंच रेडियो, टीवी, अखबारों तथा पूरे राष्ट्र तक व्याप्त है. उन्हें आरएसएस द्वारा प्रशिक्षित एक प्रतिबद्ध काडर का समर्थन हासिल है. सबसे बढ़ कर उनकी पार्टी के पास चुनावी फायदों के लिए मतदाताओं को विभाजित करने हेतु धार्मिक ध्रुवीकरण का ब्रह्मास्त्र है.

विपक्ष की समस्या यह है कि उसमें आदतन नकारात्मक प्रवृत्ति है. इसका तात्पर्य उस तरीके का अवमूल्यन करना नहीं है, जिसके द्वारा मजबूत क्षेत्रीय नेताओं ने भाजपा की आंधी कुछ राज्यों में रोक रखी है.

सच्चाई यह है कि जब तक विपक्ष के कद्दावर नेतागण व्यापक राष्ट्रीय परिदृश्य पर एक साथ नहीं आते, भाजपा क्रमशः किंतु निर्णायक रूप में अपनी राष्ट्रीय पहुंच का दायरा बढ़ाती जायेगी. इन चुनावों में, जहां पंजाब में कांग्रेस ने एक विश्वसनीय जीत हासिल की, इसे याद रखा जाना चाहिए कि ऐसा शिरोमणि अकाली दल तथा भाजपा की सरकार के विरुद्ध एक अत्यंत शक्तिशाली सत्ताविरोधी लहर के बल पर ही संभव हो सका. गोवा में इसका प्रदर्शन उत्साहवर्द्धक है. मणिपुर में भाजपा की बढ़त उत्तर-पूर्व में कांग्रेस की पारंपरिक पकड़ पर भाजपा की गंभीर चुनौती का प्रतिनिधित्व करती है. उत्तराखंड में भाजपा ने जिस अंतर से कांग्रेस को सत्ता से दूर करते हुए मुख्यमंत्री हरीश रावत को पराजित किया है, वह कांग्रेस की अविरल नाकामी का द्योतक है.

दिल्ली में एक हालिया समारोह में नीतीश कुमार ने सार्वजनिक रूप से यह कहा कि इस पल विपक्ष की एकता जरूरी है. संभवतः विपक्ष के कुछ वरीय नेताओं को तुरंत ही साथ आकर एक कोर ग्रुप बनाने तथा नियमित रूप से मिलते हुए ऐसी एकता को रूपाकार देने की प्रक्रिया प्रारंभ करने की आवश्यकता है. ऐसे किसी भी प्रयास को अंतिम क्षणों की जोड़तोड़, नेतृत्व की अपरिपक्व होड़ तथा विशुद्ध स्थानीय सरोकारों को छोड़ राजनेताओं के गुणों तथा एक राष्ट्रीय विजन से लैस होना होगा.

तात्कालिक संदर्भ में, कुछ अन्य अहम घटनाएं भी हुई हैं. पंजाब में जीत के लिए आशान्वित आप को एक बड़े अंतर से दूसरे स्थान से संतोष करना पड़ा. वह गोवा से भी साफ हो गयी. अरविंद केजरीवाल तथा उनकी पार्टी की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा के लिए यह क्या कुछ संकेत देता है?

क्या अखिलेश यादव अपनी पकड़ बनाये रखने में सफल होंगे अथवा पार्टी का पुराना नेतृत्व यादव परिवार के संघर्ष को और आगे ले जायेगा? सबसे बढ़ कर, उत्तर प्रदेश जैसे प्रमुख राज्य में अपनी उल्लेखनीय विजय के बाद नरेंद्र मोदी एवं अमित शाह पर केंद्रित भाजपा क्या एक ऐसे हाइकमान का उदय देखेगी, जैसा किसी और पार्टी ने पहले कभी नहीं देखा है? और पार्टी में क्या योगी आदित्यनाथ, विनय कटियार एवं साक्षी महाराज जैसों की आवाजें और बुलंद होकर अन्य विवेकवान तत्वों के विचारों पर हावी हो उठेंगी?

(अनुवाद: विजय नंदन)

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