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स्त्री का सुना जाना संभव हो

सुजाता युवा कवि एवं लेखिका शायद शहरी संभ्रांत परिवारों में लड़कियां ऐसा न सुनती हों, लेकिन गांवों और कस्बों में बड़ी होती बच्चियां जब घर में, सड़क पर, छत पर हंसी-ठिठोली करती हैं, तो मांएं कहती हैं- इतनी जोर से मत हंसो, शरीफ लड़कियां ऐसे राक्षसों की तरह नहीं हंसतीं, वे ऐसे रहती हैं कि […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 15, 2017 6:10 AM
सुजाता
युवा कवि एवं लेखिका
शायद शहरी संभ्रांत परिवारों में लड़कियां ऐसा न सुनती हों, लेकिन गांवों और कस्बों में बड़ी होती बच्चियां जब घर में, सड़क पर, छत पर हंसी-ठिठोली करती हैं, तो मांएं कहती हैं- इतनी जोर से मत हंसो, शरीफ लड़कियां ऐसे राक्षसों की तरह नहीं हंसतीं, वे ऐसे रहती हैं कि पड़ोस में पता भी नहीं लगे कि यहां लड़कियां रहती हैं. मांएं इन्हीं शिक्षाओं के साथ बड़ी होती हैं और फिर यही अपनी बेटियों को सिखा रही होती हैं और इसमें कुछ भी गलत, असहज नहीं होता. उधर घरों में बड़े बेटे का रोल बाप की तरह होता है, जो एक बार चिल्लायेगा, तो सब चुप हो जायेंगें, मक्खी की तरह भिन-भिन करती लड़कियां खामोश हो जायेंगी और अपने-अपने काम को जा लगेंगी.
हम समझ नहीं पाये कि हमारी हंसी इतनी बुरी क्यों समझी जाती है! हम हंस-हंस कर अपनी ओर ध्यान खींचते हैं लड़कों का! कभी कोई मोहल्ले की अम्मा ऐसा कहते हुए चली जाती हैं- नासपीटी हंसती हैं सरेआम, कल को कुछ हो गया, तो उम्र भर को रोना होगा. कभी कोई ब्याह हो, तो मांएं अपनी लड़कियों को सजा-धजा के ले जातीं कि कोई बिरादरी का ही अच्छा परिवार पसंद कर ले, तो एक लंबे, देखा-दिखाई के पचड़े से पिंड छूटे. बचपन में चुटकुला सुना-सुना के लोटपोट होते थे कि तीन तोतली बहनों को देखने लड़के वाले आये. बाप ने सीख दी थी कि कोई भी बोलेगी नहीं. लेकिन लडकियां थीं न! चींटे को देख कर घबरा गयीं. एक ने कहा ‘चींता’, तो सब बोलीं ‘तांएं-तांएं’. ऐसे ही तो अपनी राय रखना स्त्री के लिए अच्छा नहीं माना गया. संस्कार ही ऐसी मिली है कि कहती कुछ और हैं, लेकिन समझा कुछ और ही जाता रहा. जो कहती हूं डंके की चोट पर कहती हूं. ‘सही कहती हूं’ वाला रौब तो आया ही नहीं.
उस वक्त तोतली बेटियों की पोल तो खुल गयी, लेकिन चुटकुले का स्त्री-विरोधी पाठ नहीं खुल सका. लड़कियां न बोलतीं तो पसंद कर ली जातीं, आखिर ‘दिखना’ जरूरी है स्त्री का, बोलना उससे भी कम, और उसका सुना जाना तो बिल्कुल भी जरूरी नहीं है. स्त्रियां हमेशा फालतू बक-बक करती हैं.
दो औरतें चुप हैं, तो यह चुटकुला है. औरतों की बातों में कौन पड़े? जैसी बातें बताती हैं कि स्त्रियों को ‘न सुना जाना’ किस कदर एक सहज-सामान्य बात है और उन्हें सुना जाना कितना गैर-जरूरी. जब मुंह खोलेंगी, तो शिकायत करेंगी या मूर्खता प्रदर्शित करेंगी. खूबसूरती और बुद्धि एक साथ नहीं देता ईश्वर, ये खयाल इतने आम हैं कि पुरुषों को विशिष्ट महिलाओं के लिए ‘ब्यूटी विद ब्रेन’ जैसे विशेषण अलग से लगाने की जरूरत पड़ती है.
दुनिया आंखें सेंकने के लिए पुलिया पर सजी बैठी मजलिस हो जैसे, ऐसे सिखाया जाता रहा कि स्त्रियां देखे जाने के लिए हैं, सुने जाने के लिए नहीं. यह कहावत बॉलीवुड में चरितार्थ होते दिखती रही. वहां आज बोलती हुई स्त्रियां तो हैं फिल्मों में, लेकिन बहुत कम फिल्में ऐसी हैं, जहां उनका बोलना समाज से सुने जाने की मांग रखता है. सोशल साइट्स पर तस्वीरें बदलती स्त्रियां जितनी आराम से स्वीकृत हैं, उतना बोलती हुई स्त्रियां नहीं. पर्दे के रंग और सोफे के डिजाइन या फलां रिश्तेदार की शादी में शगुन कितना देना है, हम इन मुद्दों पर स्त्रियों के बोलने की बात नहीं कर रहे. प्रेम और रसोई के बारे में भी नहीं. देश के बारे में, राजनीति के बारे में, समाज के बारे में, अपनी गुप्त-सुप्त इच्छाओं के बारे में.
गुरमेहर हो या कविता कृष्णनन, जो वे आप सोचती हैं कि अगर आप बेखौफ होकर बोलेंगी, तो बलात्कार की धमकियों और गालियों से आपकी दीवारें रंग जायेंगी.
हम उन्हें सुनने के लिए तैयार नहीं हैं. वे बोल रही हैं और सजग हो रही हैं, लेकिन सुनी नहीं जा रहीं. उसे वैसे ही ध्यान देकर सुना जाये, जैसे कि पुरुष को. इसके लिए उसे कभी उन्हीं औजारों का सहारा लेना पड़ रहा है, जिसका पुरुष लेते आये हैं. जैसे कि पुरुष भाषा! साहित्य में, मीडिया में, फिल्मों में! मुख्यधारा सिनेमा की हीरोइन स्त्री खुद को बेवकूफ कहे, एंटरटेनमेंट कहे या तंदूरी मुर्गी, उसे न स्त्री की भाषा कह सकते हैं, न ही एक स्त्री का मन उसमें झांकता है. एक महिला पुलिस कॉन्स्टेबल की बात को गंभीरता से लिया जाये. क्या इसके लिए वह स्त्री बनी रह कर ही उतनी प्रभावी होती है? एक मीडिया एंकर महिला अगर अपनी स्क्रिप्ट अपने आप लिखने लगे, तो क्या उस खबर या चैनल की टीआरपी वही रह जायेगी, जो एक पुरुष भाषा में लिखी गयी स्क्रिप्ट और एक खूबसूरत चेहरा दिखा कर एक चैनल को अकसर मिलती है? पुरुष को पुरुष की ही शब्दावली में जवाब देकर स्त्री मानो अपने ही पाले में गोल करती है.
लोक जीवन में सराबोर, अपने बिंब, अपनी अभिव्यक्तियां और अपनी शैली जो स्त्री की भाषा को एक चमक देती है, वह पुरुष की मुच्छड़ भाषा के सेक्सिट बिंबों और प्रयोगों से एकदम अलग है.
कभी इस मुच्छड़ भाषा के इस्तेमाल से खुद वह अथॉरिटी पाना चाहती है, जो खुद का सुना जाना संभव होने देने के लिए अनिवार्य मान बैठी है. उसके भीतर एक पुरुष है और वह लिखती जाती है, तो उसकी वाहवाही पर सिहाती जाती है. घर के बड़का बाबू चिल्लायेंगे, तो सब चुप हो जायेंगे वाली अकड़ कभी-कभी स्त्री लेखक को सम्मोहित करती है, तो वह अथॉरिटी के साथ एक ऐसी फतवा-फैसला वाली भाषा की शरण में जाती है, जहां सबसे ज्यादा स्वीकृति है. पुरुष कविता के, उसी की पत्रकारिता के, सिनेमा के दुर्ग तोड़ने के लिए वह उसी के औजारों, उसी की भाषा का इस्तेमाल करती हुई आगे बढती है. स्त्री भाषा जहां खुलापन लिये है, वहां स्वीकृत होती है. जहां वह गूढ़ है, वहां अपने पढ़े जाने और सुने जाने के लिए सदियों से प्रतीक्षारत है.
घरों, परिवारों, सड़कों, सोशल साइट्स, साहित्य, सिनेमा में वह अपने बोलने के मौके धीरे-धीरे पा रही है, लेकिन वह कितना सुनी जा रही है, हम उसे सुनने का कितना धैर्य रखते हैं, हम उन्हें सुनने को कितना तैयार हैं, इन सवालों के पार जाकर भी वह अभिव्यक्त हो रही है. स्त्री अब सिर्फ देखा जाना नहीं, सुना जाना चाहती है- अटेंशन प्लीज!

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