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किसान की डायरी

गिरींद्र नाथ झा ब्लॉगर एवं किसान आलू, सरसों उपजाने के बाद किसान अभी हरियाली में डूबे पड़े हैं. खेतों में मक्का लहलहा रहा है. खेत की हरियाली इन दिनों देखते बनती है. वहीं जलजमाव वाले खेतों में फिर से धनरोपनी हुई है. धनरोपनी के हफ्ते भर बाद ऐसा लगता है मानो खेत में हरे रंग […]

गिरींद्र नाथ झा
ब्लॉगर एवं किसान
आलू, सरसों उपजाने के बाद किसान अभी हरियाली में डूबे पड़े हैं. खेतों में मक्का लहलहा रहा है. खेत की हरियाली इन दिनों देखते बनती है. वहीं जलजमाव वाले खेतों में फिर से धनरोपनी हुई है. धनरोपनी के हफ्ते भर बाद ऐसा लगता है मानो खेत में हरे रंग की चादर बिछा दी गयी हो. इन दिनों किसान खुश दिख रहे हैं. लगातार दो महीने मेहनत करने के बाद अब कुछ दिन किसानों के लिए राहत का है. बस आंधी और ओलावृष्टि न हो!
किसानी की दुनिया को दूर से देखनेवालों का कहना है कि लगातार मेहनत से मन ‘हार’ जाता है, लेकिन मक्का की हरियाली ‘मन से हार’ को मिटा कर ‘मन को हरा’ कर देती. होली के बाद हवा ने रुख बदला है, धूल ने हवा का साथ दिया और गर्मी ने इन दोनों के बीच अपने लिए जगह बना कर दस्तक देने की कोशिश की है, हालांकि ठंड अभी है. दूसरी ओर, कुछ दिन पहले हुई बारिश ने किसानों को पटवन से राहत तो दी है, लेकिन हवा और उमड़ते बादल से आंधी का भय सता रहा है.
प्रकृति जो चाहेगी वही होगा. खेत में अपना काम पूरा कर किसानी समाज इन दिनों अपनी दुनिया में मगन है. होली के बाद भी गाम-घर में उत्सव जैसा माहौल बना हुआ है. किसी घर में भगैत, तो कहीं कीर्तन हो रहा है.
वहीं कुतुबुद्दीन चाचा जलसा करवा रहे हैं. धर्म की दीवार लोगों के बीच नहीं है, यह देख कर और इसे अनुभव कर अच्छा लगता है.उधर, आम, लीची, कटहल और नींबू के पेड़ फलों के लिए तैयार हो रहे हैं. आम के मंजर मन के भीतर टिकोले और पके आम के बारे में सोचने को विवश कर रहे हैं. मन लालची हुआ जा रहा है. उन मंजरों में कीड़ों ने अपना घर बना लिया है, मधुमक्खियां इधर-उधर घूम रही हैं. रेलवे की लाइन की तरह आम बाड़ी में पंक्तिबद्ध मालदह, कलकतिया, गुलाबखास, बंबई, जर्दालू, आम्रपाली गाछों में मंजर देख कर मन चहकने लगा है. लीची में भी मंजर हैं, लेकिन आम ने इस बार बाजी मारी है. मंजरों में मधुमक्खियां लिपटी रहती हैं.
बांस के झुरमुटों में कुछ नये मेहमान आये हैं. बांस का परिवार इसी महीने बढ़ता है. वहीं उसके बगल में बेंत का जंगल और भी हरा हो गया है. लगता है गर्मी की दस्तक ने उसे रंगीला बना दिया है. कुछ खरगोश दोपहर बाद इधर से उधर भागते-फिरते मिल जाते हैं. वहीं गर्मी के कारण सांप भी अपने घरों से बाहर निकलने लगे हैं.
ग्राम्य जीवन के इस महीने की व्याख्या शब्दों में संभव नहीं है. यहां जीवन हर पल बदलता है. किसान के भीतर मां होती है, जो 12 महीने फसल के रूप में बच्चों को पालती-पोसती है. फसल को तैयार कर जब मंडी पहुंचाया जाता है, तो बेटी की विदाई जैसा माहौल किसान के मन में हो जाता है. शायद ऐसी जिंदगी आप किसी पेशे में नहीं जीते हैं. किसानी को पेशा माना जाना चाहिए, लेकिन अब भी तथाकथित विकसित समाज इसे पेशा मानने को तैयार नहीं है. कई लोग किसानी को मजबूरी कहते हैं.
कबीराहा मठ की ओर शाम में जब जाना होता है, तो अंदर से साधो-साधो की आवाज गूंजने लगती है. मन ही मन बुदबुदाता हूं- ‘धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय. माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आये फल होय.’
जीवन की आपाधापी के बीच यार-दोस्त गाम में किसानी कर रहे अपने इस दोस्त के यहां आ-जा रहे हैं. जब भी दूर नगर-महानगर से कोई दोस्त-यार आता है, तो मन के भीतर हरियाली और भी बढ़ जाती है. मैं कबीर में खो जाता हूं और बस यही कहता हूं-
दुख में सुमरिन सब करे, सुख में करे न कोय।
जो सुख में सुमरिन करे, दुख काहे को होय।।

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