सर्वोच्च न्यायालय ने पूर्व सांसदों और विधायकों को दी जानेवाली पेंशन, मुफ्त ट्रेन यात्रा और अन्य सुविधाओं को प्रथम दृष्टया अतार्किक माना है और केंद्र से इस मसले पर अपना पक्ष रखने को कहा है.
हालांकि, खंडपीठ ने इस बात को स्वीकार किया है कि कार्यालय छोड़ने के बाद सदस्यों को जीवन-यापन के लिए दी जानेवाली वित्तीय मदद गलत नहीं है, लेकिन यह भी रेखांकित किया है कि विविध प्रकार के भत्तों और सुविधाओं को भी न्यायसंगत बनाया जाना चाहिए. वित्त मंत्री अरुण जेटली की यह बात भी सही है कि कि सार्वजनिक धन को खर्च करने और सांसदों के लिए पेंशन निर्धारित करने जैसे अधिकार संसद के पास हैं. इस बहस में इस बिंदु को भी रखा जाना चाहिए कि सार्वजनिक जीवन में निर्वाचित पद को कमाई का जरिया बनाने की प्रवृत्ति भी परवान चढ़ती जा रही है. इसी का नतीजा है कि नेता चुनाव जीतने के लिए हर तरह की जुगत लगाते हैं.
जीतने के बाद सांसदों और विधायकों द्वारा मनमाने ढंग से अपने वेतन और भत्ते को बढ़ाने की कवायद भी हमारे सामने अक्सर होती रहती है. कुछ राज्यों में इन पर लगनेवाले आयकर का भी भुगतान सरकारी खजाने यानी जनता के पैसे से किया जाता है. कानूनी रूप से सांसदों और विधायकों को दिये जानेवाले भत्ते कर-मुक्त होते हैं. उल्लेखनीय है कि संविधान निर्माण के समय पूर्व सांसदों को पेंशन दिये जाने के मुद्दे पर संविधान सभा सहमत नहीं थी.
राजस्थान उच्च न्यायालय ने भी कहा था कि सांसद और विधायक कोई ‘कर्मचारी’ नहीं हैं, वे जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधि हैं, जिन्हें अपने दायित्वों का निर्वाह करना होता है. आंकड़े बताते हैं कि समृद्ध पृष्ठभूमि से आनेवाले लोगों की संख्या संसद और विधानसभाओं में लगातार बढ़ती जा रही है. लेकिन, ऐसे लोग भी सुविधाओं का लाभ उठाने में कोई हिचक नहीं रखते.
गणतांत्रिक इतिहास में ऐसे जन-प्रतिनिधियों की भी बड़ी संख्या है, जिन्होंने कमाई या भत्ते की चिंता किये बगैर जनता की सेवा के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया. बहरहाल, अभी तो इस मसले पर सुनवाई होनी बाकी है, लेकिन जेटली की टिप्पणी के बाद संकेत यह भी हैं कि यह मुद्दा न्यायपालिका और विधायिका के बीच खींचतान का एक कारण बन सकता है. उम्मीद है कि संवैधानिक व्यवस्थाओं का समुचित मान रखते हुए इस महत्वपूर्ण मसले पर चर्चा होगी और तर्कसंगत परिणाम तक पहुंचा जा सकेगा.