लोकपाल पर सरकारी हिचक
‘नानौ मन तेल होगा ना राधा नाचेगी’- लोकपाल की नियुक्ति के सवाल पर सरकार का रवैया कमोबेश यही है. वर्ष 2014 की 16 जनवरी से लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम प्रभावी है. कानून बनने के छह माह के भीतर केंद्र में नयी सरकार बनी और यह बात बेखटके कही जा सकती है कि मजबूत लोकपाल बनाने […]
‘नानौ मन तेल होगा ना राधा नाचेगी’- लोकपाल की नियुक्ति के सवाल पर सरकार का रवैया कमोबेश यही है. वर्ष 2014 की 16 जनवरी से लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम प्रभावी है. कानून बनने के छह माह के भीतर केंद्र में नयी सरकार बनी और यह बात बेखटके कही जा सकती है कि मजबूत लोकपाल बनाने के आंदोलन का केंद्र में हुए सत्ता-परिवर्तन में अहम योगदान रहा था.
विडंबना देखिये कि केंद्र में सरकार तो बदल गयी, लेकिन लोकपाल बहाल नहीं करने का सरकारी बहाना नहीं बदला. लोकपाल की नियुक्ति में हो रही देरी के मसले पर दायर याचिका के जवाब में सरकार का जवाब बिल्कुल पुरानी टेक पर है कि जब तक मौजूदा कानून में संशोधन नहीं हो जाता, तब तक लोकपाल की नियुक्ति करने में सरकार लाचार है. सरकार कहती आयी है कि मौजूदा प्रावधान के मुताबिक लोकपाल नियुक्त करने का जिम्मा जिस समिति को है, उसमें प्रतिपक्ष के नेता का होना जरूरी है और लोकसभा में अभी प्रतिपक्ष के नेता हैं ही नहीं, क्योंकि विपक्ष के सबसे बड़े दल कांग्रेस के पास सदस्यों की कुल संख्या का दशमांश नहीं है. इस कारण उसे प्रमुख विपक्षी दल का दर्जा नहीं दिया जा सका है.
यह तर्क कहता है कि ऐसे में प्रतिपक्ष के नेता के होने का सवाल ही नहीं उठता. लोकपाल की नियुक्ति में हो रहे विलंब पर जब अदालत ने जवाब-तलब किया, तो सरकार ने कहा कि प्रतिपक्ष के नेता न होने की समस्या के समाधान के लिए संसदीय समिति ने कुछ सुझाव दिये हैं. इन सुझावों के अनुकूल कानून में संशोधन हो जाये, तो लोकपाल की नियुक्ति कर दी जायेगी. अब सवाल यह उठता है कि सरकार को जरूरी संशोधनों से कौन रोक रहा है? मुख्य सूचना आयुक्त और केंद्रीय जांच ब्यूरो के निदेशक की नियुक्ति में भी प्रतिपक्ष के नेता की भूमिका होती है.
इन दोनों मामलों में सरकार के सामने वह मजबूरी क्यों नहीं आयी, जो लोकपाल के मसले में दिखायी दे रही है? यह बहुत निराशाजनक है कि लोकपाल की नियुक्ति के मुद्दे पर चार दशक पुरानी कहानी अपने को बार-बार दोहरा रही है. चौथी लोकसभा के वक्त पहला लोकपाल विधेयक पारित हुआ, परंतु राज्यसभा की मोहर लगने से पहले ही सरकार बदल गयी. आगे की सरकारें इतनी भी हिम्मत न जुटा सकीं कि लोकपाल का प्रस्ताव संसद पहुंचे. बरसों के आंदोलन के बाद 2014 में लोकपाल का आंदोलन एक ठोस मुकाम तक पहुंचा. कानून तो बन गया है और कानून के ही नुक्ते से लोकपाल की नियुक्ति की राह एक बार फिर से टाली जा रही है. उम्मीद की जानी चाहिए कि निराशा करनेवाली यह सूरत बहुत जल्दी बदलेगी.