वैध-अवैध बूचड़खाना
सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार सारे बूचड़खानों को मैं पहले एक जैसा समझता था. वह ‘खाना’ यानी जगह, जहां बूचड़ नामक आदमी पशुओं को दूसरे आदमियों के ‘खाने’ में बदलता है. पशुओं को ‘पशु’ इसलिए कहा जाता है कि वे ‘पाश’ में बद्ध होते हैं. बूचड़खाने में मनुष्य पशुओं को उनके हर पाश यानी बंधन से […]
सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
सारे बूचड़खानों को मैं पहले एक जैसा समझता था. वह ‘खाना’ यानी जगह, जहां बूचड़ नामक आदमी पशुओं को दूसरे आदमियों के ‘खाने’ में बदलता है. पशुओं को ‘पशु’ इसलिए कहा जाता है कि वे ‘पाश’ में बद्ध होते हैं. बूचड़खाने में मनुष्य पशुओं को उनके हर पाश यानी बंधन से मुक्त कर देता है.
और ऐसा इसलिए कि कुछ लोगों को साग-पात खाने में मजा नहीं आता. या कहिये कि उन्हें मांस में ही साग-पात नजर आता है. हमारे एक पड़ोसी बकरे और सूअर को ‘चलती-फिरती सब्जी’ कहा करते थे. मुर्गा भी उनकी निगाह में ‘उड़ती सब्जी’ था. कहा जा सकता है कि जाकी रही भावना जैसी, साग-पात देखी तिन तैसी. कई जगहों पर तो मछली को भी मांसाहार नहीं समझा जाता, बल्कि ‘जलतोरी’ कह कर उसे तोरी का-सा सम्मान दिया जाता है.
मेरे एक मित्र का मौसेरा भाई पहली बार उससे मिलने उसके घर आया, तो मित्र गोश्त के साथ रोटी खा रहा था. मित्र ने उसे भी खाने के लिए कहा, तो उसने मना कर दिया. मित्र ने पुन: आग्रह किया, तो उसने कहा, तुम बोटी को आलू कहो, तभी मैं खाऊंगा, वरना नहीं. मित्र ने कह दिया, तो उसने निर्द्वंद्व भाव से मांसाहार कर लिया. उसकी आत्मा पर रखा बोझ इस तरह वहां से हट कर उसके पेट में चला गया.
अपनी-अपनी रुचि और क्षमता के अनुसार कोई ‘बड़े’ का मांस खाता है, तो कोई ‘छोटे’ का; कोई ‘उड़ते’ का, तो कोई ‘तैरते’ का. कहीं-कहीं ‘भौंकते’ और ‘सरकते’ का भी खाया जाता है.
जानवर को काटने के तरीके को लेकर भी लोगों के अपने-अपने आग्रह हैं, जिन्हें वे सत्याग्रह से कम का दर्जा नहीं देते. कोई ‘हलाल’ किया गया मांस ही खाता है, तो कोई ‘झटके से’ काटा गया. तसल्ली दोनों को ही यह रहती है कि जानवर ज्यादा देर तकलीफ में नहीं रहा. बेचारे, जानवर को खा भले लेते हों, पर उसे तकलीफ में नहीं देख सकते.
ऐसे ही भले लोगों के लिए हिंदुस्तान में जगह-जगह बूचड़खाने खोले गये हैं. उत्तर प्रदेश में सत्ताधारी दल ने चुनाव से पहले कहा था कि ये सारे बूचड़खाने बंद कर दिये जायेंगे. जिस शिद्दत से वे जीत कर आये, उससे लगता है कि आदमियों ने ही नहीं, जानवरों ने भी उन्हें बढ़-चढ़ कर वोट दिया.
लेकिन, उन सबकी आशाओं पर पानी फेरते हुए अब कहा जा रहा है कि केवल अवैध बूचड़खाने ही बंद किये जायेंगे, वैध नहीं. शायद वैध बूचड़खानों में जानवरों को काटा नहीं, पूजा जाता होगा! यह भी हो सकता है कि उनमें कटनेवाली गाय कुमाता होती हो. वैसे भी, उत्तर में माता समझी जानेवाली गाय पूर्वोत्तर तक जाते-जाते मौसी भी नहीं रह जाती. वोट का प्रताप ही कुछ ऐसा है.