घर में बराबरी की बात कब होगी!
।। शीबा असलम फहमी।। (संपादक, मिशन मैगजीन) फांसी से बड़ी कोई सजा नहीं. और फांसी आप दे चुके! लेकिन बलात्कार तो और बढ़ गये. तो अब क्या कीजियेगा? फांसी से भी बड़ी सजा इजाद कीजियेगा? या बलात्कार पर और भी ज्यादा चिंतित स्वर निकालियेगा? या सचमुच स्त्री को समाज में बराबरी, आजादी और इंसाफ दिलाइयेगा? […]
।। शीबा असलम फहमी।।
(संपादक, मिशन मैगजीन)
फांसी से बड़ी कोई सजा नहीं. और फांसी आप दे चुके! लेकिन बलात्कार तो और बढ़ गये. तो अब क्या कीजियेगा? फांसी से भी बड़ी सजा इजाद कीजियेगा? या बलात्कार पर और भी ज्यादा चिंतित स्वर निकालियेगा? या सचमुच स्त्री को समाज में बराबरी, आजादी और इंसाफ दिलाइयेगा? यदि इस आखिरी सवाल का जवाब ज्यादा दुरूह लग रहा हो, तो बता दूं कि यह बिल्कुल मुमकिन है. और जैसे ही ये तीन नेमतें- ‘बराबरी’, ‘आजादी’ और ‘इंसाफ’- उसे मिल जायेंगी, वह अपने ऊपर शासन करने, हावी होने और पीड़ा सहने से मना कर देगी और उसी वक्त नारी सशक्तीकरण के अंतिम चरण में हम पहुंच जायेंगे.
स्त्री को सेविका-भोग्या जब नहीं समझा जायेगा, तभी उसे बराबर का इंसान समझा जायेगा. लेकिन इसमें एक दिक्कत है. और वह हैं आप! इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ कि क्रूर शासक वर्ग ने अपने गुलाम को सत्ता में बराबर की हिस्सेदारी थाली में सजा कर दी हो. न राजा का हुआ अपनी प्रजा के प्रति, न गोरों का हुआ कालों, रेड-इंडियनों-हिस्पैनिकों और आदिमानवों के प्रति, न अंगरेजों का हुआ अपने उपनिवेशों के प्रति, न सवर्णो का हुआ दलितों के प्रति, न पूंजीपतियों का हुआ सर्वहारा के प्रति और न पुरुषों का हुआ स्त्रियों के प्रति! हर जगह सत्ता में बंटवारा एक लंबे और खूनी संघर्ष के बाद ही हुआ. आखिर किसे बुरा लगता है कि जब वह घर में जाये, तो वहां मां-बहन-पत्नी या बेटी रूपी सेविका गर्म खाने के साथ मुस्कुरा कर स्वागत करती मिले? इतना ही नहीं, आप जब उस सुसज्जित घर से निकलें, तो आपकी सारी संपत्ति, राज और निजता की सुरक्षा में यही जमात पूरी ईमानदारी से डटी रहे. आसान तो नहीं है ऐसी सुख-सुविधा छोड़ पाना! है न? परंतु इस सुख-सुविधा को जारी रखने के आपके जितने भी हथियार हैं, जैसे धर्म, परंपरा, शिक्षा-प्रणाली, राज्य व्यवस्था, न्याय, पूंजीवाद आदि, इन सभी को कटघरे में खड़ा करना शुरू कर दिया है गुलामों ने. जब मानवता ने सारी प्रगति की कसौटी को एक मूल-मंत्र में निचोड़ के रख दिया- यानी ‘सब के लिए आजादी, बराबरी और न्याय’- तब इस ‘सब’ में से आपने स्त्री को चुपचाप बाहर निकाल दिया. तार्किक और सभ्य समाज में मेंबरशिप पाने के लिए आपने संविधान तो खूब बनाये, लेकिन उस संविधान ने जो कुछ भी दिया, उसे परंपरा-धर्म-सामाजिकता के चोर दरवाजे से आपने वापस भी ले लिया. बल्कि धर्म-परंपरा-सामाजिकता को आपने चौकीदार बना लिया, जिससे आजादी-बराबरी-न्याय जैसी बिगाड़नेवाली शय से स्त्री दूर रहे. जरा सूची देखिये- करवाचौथ, रक्षाबंधन, कन्यापूजन, गुड़िया, तीन-तलाक, बहु-पत्नी प्रथा, देवदासी, सती, बहु-जुठाई, दहेज-भात आदि. क्या इनके रहते स्त्री बराबर हो सकती है कभी?
आधुनिक शिक्षा से खतरा और बढ़ गया. ‘राम खाना खा’, ‘रमा काम कर’ जैसे ‘सरल-वाक्य’ पाठ्य पुस्तक में आम हैं. नागरिक शास्त्र की पुस्तक में आदर्श शहरी परिवार में पिता अखबार पढ़ रहा होता है, मां रसोई में या सिलाई मशीन पर, बेटी पिता की ओर चाय बढ़ाती हुई और बेटा कुर्सी-टेबल पर पढ़ता हुआ. परिवार-समाज में गुलामी की भूमिका को ही पाठ्य-पुस्तकें भी आदर्श के तौर पर ढोने लगीं. अर्थशास्त्र की किताबों में खेती से लेकर कारखानों तक, सब जगह आपने स्त्री को गायब कर दिया. प्रतीत हुआ कि किसी भी आय-श्रम-मूल्यवृद्धि में स्त्री का कोई योगदान नहीं! ऐसा ही आपने सभी पाठ्य पुस्तकों में किया.
एक भाई अपनी बहन के शरीर के प्रति किसी अनजान व्यक्ति द्वारा किये जानेवाले अपराध के लिए मरने-मारने पर तुला रहता है. लेकिन अपने घर में गुलामी करवाने, भरपेट और पौष्टिक भोजन न देने, बीमारी में उचित इलाज न करवाने, शिक्षा में उसे दोयम दर्जे का रखने, पिता की संपत्ति में हक से वंचित रखनेवाला भाई-समाज बलात्कार के प्रति जब अत्यंत संवेदनशील हो उठता है, तो समङिाये कि वह अपने अपराधों के बोध से मुक्ति पाने के लिए ही इतनी ऊंची आवाज में बलात्कारी को फांसी की मांग कर रहा है. पकड़ा गया अपराधी उस हक मारनेवाले भाई को मौका देता है कि बहन पर हुई शारीरिक हिंसा पर ही बात हो, जिससे स्त्री के जेंडर के प्रति घर-घर में हो रहे अपराधों पर से ध्यान हट जाये.
अगर यौन-हिंसा का खात्मा करना है तो फांसी की सजा नहीं, बल्कि घर के अंदर बराबरी, आजादी और न्याय ले आओ. सशक्त बहन से ही सशक्त समाज बनेगा और जब एक भाई के रूप में आप स्त्री को बराबर समङोंगे, तो किसी भी स्त्री से बलात्कार नहीं होगा, क्योंकि हम सभी जानते हैं कि घर के हमारे भाई ही बाहर किसी स्त्री के बलात्कारी होते हैं. अब सोचिए कि अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का अर्थ क्या है!