तीन सरकार, तीनों बेकार!
प्रो योगेंद्र यादव राष्ट्रीय अध्यक्ष, स्वराज इंडिया हमारे देश में महानगरों की हालत इतनी बुरी क्यों है, यह समझना है तो दिल्ली आइए. लोकतांत्रिक चुनाव इसे बदलने में क्यों असफल रहते हैं, यह जानने के लिए दिल्ली नगर निगम के चुनाव को देखते रहिए. हमारे शहरों-महानगरों में सरकार एक भूल-भुलैया है. सरकारी बाबू के सिवा […]
प्रो योगेंद्र यादव
राष्ट्रीय अध्यक्ष, स्वराज इंडिया
हमारे देश में महानगरों की हालत इतनी बुरी क्यों है, यह समझना है तो दिल्ली आइए. लोकतांत्रिक चुनाव इसे बदलने में क्यों असफल रहते हैं, यह जानने के लिए दिल्ली नगर निगम के चुनाव को देखते रहिए.
हमारे शहरों-महानगरों में सरकार एक भूल-भुलैया है. सरकारी बाबू के सिवा किसी को नहीं पता कि किसका क्या अधिकार क्षेत्र है. दिल्ली शहर में तीन सरकारों का राज चलता है- उपराज्यपाल के जरिये केंद्र सरकार का, मुख्यमंत्री के जरिये राज्य सरकार का, मेयर तथा कमिश्नर के जरिये दिल्ली नगर निगम का. जमीन का उपयोग केंद्र सरकार के तहत डीडीए करेगी, बिल्डिंग बनाने की अनुमति नगर निगम देगा, लेकिन उसके नियम राज्य सरकार बनायेगी. सड़क राज्य सरकार बनायेगी, लेकिन गली नगर निगम. कुछ प्राथमिक स्कूलों, अस्पतालों को नगर निगम चलाता है, कुछ को राज्य सरकार, तो कुछ को सीधे केंद्र सरकार. सीवर जहां शुरू होता है, वह नगर निगम की जिम्मेवारी है, लेकिन खत्म होते-होते वह राज्य सरकार का सरदर्द बन जाता है! ऐसी व्यवस्था में सरकार चलाने की बजाय खो-खो खेलने की गुंजाइश ज्यादा बनी रहती है.
ऐसे में आम जनता पर क्या गुजरती है, इसे आप दिल्ली के पिछले साल के अनुभव से समझ सकते हैं. पिछले साल बारिश के बाद दिल्ली में डेंगू-चिकनगुनिया की महामारी हुई. सरकारी कागजों में सिर्फ 15 हजार बीमार दर्ज हुए, लेकिन वास्तव में 35-40 लाख लोग महामारी के शिकार हुए. एक से ज्यादा बार सफाई कर्मचारियों ने वेतन न मिलने की वजह से हड़ताल की. सर्दी शुरू होते ही वायु प्रदूषण खतरनाक स्तर को भी पार कर गया. आइआइटी के शोध के मुताबिक पिछले साल दिल्ली में प्रदूषण के असर से 50 हजार मौत हुई. इस महानगर में हर तीन में से एक बच्चे को सांस की बीमारी है.
ऐसे खतरनाक हालात में भी सरकारें जागती नहीं हैं. दिल्ली शहर को चलाने के लिए जिम्मेवार नेता और अफसर या तो अपनी जेब भरने में मस्त हैं या फिर राजनीतिक तू-तू, मैं-मैं में व्यस्त हैं.
दिल्ली में वायु प्रदूषण को खत्म करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने एक साल पहले 42 निर्देश दिये थे. दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार और बीजेपी नियंत्रित नगर निगम ने एक भी निर्देश को ठीक से लागू नहीं किया. केंद्र सरकार ने स्वच्छ भारत अभियान के लिए दिल्ली को जो 336 करोड़ रुपये दिये, उनमें से तीनों नगर निगम ने मिला कर सिर्फ दो करोड़ खर्च किये. जब दिल्ली में डेंगू और चिकनगुनिया की महामारी चल रही थी, तब मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल बेंगलुरु में इलाज के लिए गये हुए थे, उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया फिनलैंड की शिक्षा व्यवस्था का अध्ययन करने गये हुए थे, उप-राज्यपाल नजीब जंग अमेरिका के प्रवास से वापस आये थे और उत्तरी नगर निगम के मेयर यूरोप भ्रमण कर रहे थे. दिल्ली गंदगी और बीमारियों का घर बन रही है.
ऐसे में अगर चुनाव हो तो क्या होगा? आप सोचेंगे कि इन हालात में सभी पार्टियां दिल्ली की गंदगी को साफ करने की योजनाएं पेश करेंगी. अब आप 23 अप्रैल को होनेवाले नगर निगम के चुनाव पर नजर डालिए. दिल्ली के तीनों नगर निगम के 273 वार्डों में चुनाव होना है, अगले पांच सालों के लिए शहर की सूरत तय होनी है, लेकिन सभी बड़ी पार्टियां गंदगी और सफाई के मुद्दों को छोड़ कर इधर-उधर की बातें कर रही हैं. दस साल से नगर निगम पर काबिज बीजेपी दिल्ली की इस दुर्दशा की जिम्मेवारी लेने की बजाय मोदी लहर के पीछे छुप रही है. सभी पुराने पार्षदों के टिकट काट बीजेपी ने यह चाल चली है कि इस तिकड़म से दिल्ली की जनता बीजेपी शासित नगर निगम के निकम्मेपन गंदगी और भ्रष्टाचार को भूल जायेगी.
दिल्ली सरकार के पास पिछले दो साल में कुछ काम दिखाने को नहीं है, इसलिए वह भी नये शिगूफे छोड़ रही है. केजरीवाल ने हाउस टैक्स खत्म करने और बकाया माफ करने की घोषणा की है.
इससे गरीब का तो कोई फायदा होगा नहीं, क्योंकि झुग्गी-झोपड़ी और अनधिकृत कॉलोनी में रहनेवाले हाउस टैक्स देते ही नहीं हैं. इससे जो नगर निगम पहले ही सफाई कर्मचारी की तनख्वाह नहीं दे पा रही है, अब वह बिल्कुल दिवालिया हो जायेगी और रहा-सहा काम करना भी बंद कर देगी. ऐसा लगता है कि चुनाव में हार को निश्चित जान हताश केजरीवाल अब असंभव वादे करने पर तुल पड़े हैं. इस चुनाव में कांग्रेस भी हाथ-पांव मार रही है, लेकिन वही थके वादे और हारे चेहरे को लेकर.
एक शहर, तीन सरकार, तीनों बेकार! ऐसे में वोटर क्या करेगा? आम तौर पर दिल्ली में नगर निगम के चुनाव में उत्साह कम रहता है और मतदाता भी कम दिलचस्पी लेते हैं. क्या इस बार भी दिल्ली की जनता चुनाव में उदासीन रहेगी और बाद में शिकायत करेगी? या फिर वह आगे देखेगी और एक नये विकल्प को मौका देगी? इस प्रश्न का उत्तर दिल्ली और देश की राजनीति के लिए एक बड़ा संकेत होगा.