पनामा मामले के विभिन्न पेच

मोहन गुरुस्वामी अर्थशास्त्री पनामा मध्य अमेरिका में स्थित एक टापू देश है, जो उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका को जोड़ता है. भौगोलिक रूप से उत्तर में इसका पड़ोसी कोस्टारिका है और दक्षिण में कोलंबिया स्थित है. यह एक छोटी जमीनी पट्टी है, जो प्रशांत और अटलांटिक महासागरों को अलग करता है. मानव-निर्मित 77 किलोमीटर लंबी नहर […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 7, 2017 5:54 AM
मोहन गुरुस्वामी
अर्थशास्त्री
पनामा मध्य अमेरिका में स्थित एक टापू देश है, जो उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका को जोड़ता है. भौगोलिक रूप से उत्तर में इसका पड़ोसी कोस्टारिका है और दक्षिण में कोलंबिया स्थित है. यह एक छोटी जमीनी पट्टी है, जो प्रशांत और अटलांटिक महासागरों को अलग करता है.
मानव-निर्मित 77 किलोमीटर लंबी नहर दोनों महासागरों को परस्पर जोड़ती है और इसमें बड़े जहाजों का आवागमन हो सकता है. वर्ष 1914 में शुरुआत के बाद लंबे अरसे तक पनामा नहर इस द्वीपीय देश की आय का मुख्य जरिया था.
जल्दी ही इस देश को यह बात समझ में आ गयी कि टैक्स हेवेन बन कर और वैश्विक निवेशकों को निजता उपलब्ध करा कर बड़ी कमाई की जा सकती है. दोनों अमेरिका, शानदार कैरेबियाई द्वीपों तथा कोकीन जैसे नशीले पदार्थ के बड़े उत्पादक और कारोबारी देश कोलंबिया से निकटता और दक्षिण अमेरिका में अनेक सनकी तानाशाहों के होने से पनामा का आकर्षण कुछ अधिक ही बढ़ता गया. हाल तक पनामा नहर का इलाका अमेरिकी सैनिक सुरक्षा के तहत था, जो अमेरिकियों के लिए एक टैक्स हेवेन के रूप में पनामा को चुनने का एक कारक बना.
सवाल यह उठता है कि धनिक अपना धन छुपाना क्यों चाहते हैं. इसका सीधा कारण है कि वे आधिकारिक रूप से उतने धनी नहीं हैं, जितने कि वे सही मायने में हैं. यदि वे ईमानदारी से अपनी संपत्ति का खुलासा करते हैं, तो न सिर्फ उन्हें अधिक टैक्स देना होगा, बल्कि उनमें से कईयों को फर्जीवाड़े और धांधली के लिए जेल की हवा भी खानी पड़ सकती है.
इस स्थिति को समझने के लिए हमें यह समझना होगा कि हमारे ‘उद्योग के कप्तान’ कैसे इतने धनी और ताकतवर बन गये. जब कोई ‘उद्योगपति’ नयी परियोजना प्रारंभ करता है, तब उसके खर्च को खूब बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जाता है. फिर संयंत्रों और मशीनों का आपूर्तिकर्ता प्रोमोटरों को रिश्वत देता है, जो प्रोमोटर की पूंजी बन जाती है. इस तरह से जो जितनी परियोजनाओं को प्रोमोट करता है, वह उतना ही धनी होता जाता है. लेकिन, इस आय की घोषणा तो नहीं की जा सकती है. सो, इसे टैक्स हेवेन में छुपा दिया जाता है. इस तरह से बड़ी कमाई की जाती है और उसे ठिकाने लगा दिया जाता है. इस धन का अच्छा-खासा हिस्सा नजदीकी टैक्स हेवेन- मॉरीशस या सिंगापुर- के रास्ते वापस भारत में निवेशित कर दिया जाता है.
आश्चर्य की बात नहीं है कि 2015 में देश में आनेवाले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) में सबसे अधिक मॉरीशस (27 फीसदी) और सिंगापुर (21 फीसदी) से आया था. इन दोनों देशों में अभी सैकड़ों कंपनियां हैं, जिनके जरिये भारतीयों या भारतीय कंपनियों के विदेश में रखे धन को गुजारा जाता है. ये देश दूर स्थित टैक्स हेवेन देशों- पनामा, केमैन आइलैंड्स, बरमुडा, लिश्टेंस्टीन आदि- में रखे धन के निपटारे के केंद्र जैसे ही हैं. जितना छोटा देश होता है, वहां के अधिकारी उतनी ही आसानी से वश में किये जा सकते हैं.
अब एक और पहलू की ओर देखें. भारत में व्यावसायिक क्रेडिट एडवांस का करीब 80 फीसदी हिस्सासार्वजनिक क्षेत्र के 14 बैंकों द्वारा नियंत्रित किया जाता है. इसके अलावा परियोजनाओं को वित्त मुहैया करानेवाली दो बड़ी संस्थाएं- आइडीबीआइ और आइएफसीआइ- तथा बड़ी संस्थागत निवेशक बीमा कंपनियां- जीवन बीमा निगम, ओरियेंटल और जीआइसी सरकार के ही अधीन हैं.
सरकारी स्वामित्व के कारण राजनीतिक और ब्यूरोक्रेटिक प्रभाव यह सुनिश्चित करता है कि परियोजनाओं को बिना किसी कड़े परीक्षण के हरी झंडी मिल जाये. और फिर परीक्षण की जरूरत भी क्या है, जब परियोजनाएं शायद ही कभी बंद होती हैं और पहले के कर्ज को रिस्ट्रक्चर कर और अधिक कर्ज दिया जा सकता है?
लंबित और फंसे हुए कर्जों की सूची में करीब-करीब देश की सभी शीर्षस्थ कंपनियां शामिल हैं. जून, 2016 तक सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बैंकों का कुल फंसे हुए कर्ज की राशि लगभग छह लाख करोड़ रुपये है. वित्त मंत्रालय ने 49 बैंकों के कर्ज का विवरण संसद के सामने प्रस्तुत किया है.
रिजर्व बैंक के आकलन के अनुसार, सार्वजनिक बैंकों के कुल लंबित कर्जे का एक-तिहाई शीर्ष के 30 डिफॉल्टरों के पास है. मार्च, 2015 तक के हिसाब के लिहाज से देश के सबसे बड़े पांच सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का 4.87 लाख करोड़ सिर्फ ऐसे 44 कर्जदारों के पास अंटका हुआ है, जिनके पास पांच हजार करोड़ से अधिक का बकाया है. ये कर्जदार देश की बड़ी औद्योगिक कंपनियां हैं. कर्जे का बोझ भयानक बीमारी का रूप ले चुका है.
क्या हमने कभी इस तथ्य पर ध्यान दिया है कि क्यों संयुक्त अरब अमीरात वाणिज्यिक वस्तुओं के निर्यात (2015 में 33 बिलियन डॉलर) का दूसरा सबसे बड़ा केंद्र तथा आयात (2015 में 26.2 बिलियन डॉलर) का तीसरा सबसे बड़ा स्रोत है? संयुक्त अरब अमीरात वैध और अवैध तरीके से आयातित सोने का भी सबसे बड़ा स्रोत है. पिछले साल भारत ने आधिकारिक तौर पर 35 बिलियन डॉलर मूल्य के 900 टन सोने का आयात किया था. पनामा जैसी जगहों में पंजीकृत कंपनियां इसके अधिकांश के लिए वित्त मुहैया कराती हैं. और ऐसा ही अवैध तरीके से भेजे जानेवाले सोने में भी होता है.
वाशिंग्टन-स्थित संस्था ग्लोबल फाइनांसियल इंटेग्रिटी के आकलन के अनुसार, भारतीयों ने 2015 में 83 बिलियन डॉलर अवैध तरीके से देश के बाहर भेजा है.
यह धन कहां गया? बैंकिंग गोपनीयता की सेवा उपलब्ध करानेवाले स्विट्जरलैंड जैसे देश जमा-राशि पर आम तौर पर ब्याज नहीं देते हैं. इसलिए धन टैक्स हेवेन में चला जाता है, जहां से दुनियाभर में उसका कारोबारी निवेश होता है. क्या आपने कभी इस बात पर विचार किया है कि कैसे हमारे कई बड़े कारोबारी बहुत कम समय में विदेशों में भी बड़े बन गये?

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