।। चंदन श्रीवास्तव।।
(एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस)
सूरज वैसे तो अपने देश में पूरब में ही उगता है, लेकिन तकरीबन डेढ़ सौ साल पहले एक ‘उलट-फेर’ हुआ. हिंदी साहित्य के निर्माताओं में से एक भारतेंदु हरिश्चंद्र को लगा था कि ‘सभ्यता का सूरज पश्चिम से उदित’ हो रहा है. उनका इशारा अंगरेजी-राज और आधुनिक सभ्यता की तरफ था. ‘भारत-दुर्दशा’ की चिंता करते हुए वे सोच रहे थे कि समय समाज की चाल को ‘शोधने-बदलने’ और ‘नयी चाल’ में ढलने का आ गया है. तब से अब तक पश्चिम की सभ्यता का सूरज हिंदुस्तान के आसमान में चढ़ता ही आया. देश का मिजाज कुछ ऐसा बदला कि बात ‘सभ्यता’ के मानचित्र के भीतर अपने देश-जीवन की ऊंचाई मापने की हो, तो हम पैमाने पश्चिम से ही ढूंढ़ लाते हैं. हमने मान लिया है कि ज्ञान-निर्माण की संस्थाएं यूरोप व अमेरिका की धरती पर ही उपजती हैं, हमारा काम अपने देश में उस ज्ञान की प्रतिकृति तैयार करना है. वे शोध करते हैं, हम उन्हें सच मान कर यहां प्रचार करते हैं.
बीते पखवाड़े दुनिया को अपने आंकड़ों के भीतर दर्ज कर लेने को आतुर एक संस्था वल्र्ड वॉच इंस्टीट्यूट ने बताया कि बीते तीस वर्षो में खेती-बाड़ी से जीविका चलानेवाले लोगों की आबादी में सबसे तेज गति से इजाफा भारत में हुआ है. उसकी रिपोर्ट के अनुसार 1980 से 2011 के बीच भारत में खेतिहर आबादी में 50 फीसदी और चीन में 33 फीसदी की वृद्धि हुई है, जबकि अमेरिका की खेतिहर आबादी में इसी अवधि में 37 फीसदी की कमी आयी है. रिपोर्ट मानती है कि आधुनिक सभ्यता की इतिहास-गति उद्योगों की ओर है. इसलिए यह इतिहास-गति में पिछड़े होने का ही प्रमाण है कि दुनिया की 95 फीसदी खेतिहर आबादी अब भी सिर्फ एशिया और अफीक्रा में रहती है. रिपोर्ट का भीतरी तर्क कुछ यों बनता है कि यूरोप में बीते तीस वर्षो में चूंकि खेतिहर आबादी में सर्वाधिक 66 फीसदी की कमी आयी, इसलिए यूरोप सबसे श्रेष्ठ है. श्रेष्ठता के लिहाज से उत्तरी अमेरिका भी यूरोप के आस-पास ही है, क्योंकि वहां भी खेतिहर आबादी 37 फीसदी घटी है. चूंकि इतिहास-गति की उलट दिशा में बढ़ते हुए बीते तीस वर्षो में भारत की खेतिहर आबादी में सबसे तेज गति से इजाफा हुआ है, सो भारत सबसे ज्यादा पिछड़ा है.
रिपोर्ट में अगड़ा-पिछड़ा का द्वैत एशिया-अफ्रीका बनाम यूरोप-अमेरिका के बीच बनाया गया है, कुछ इस तरह कि बात एकदम वैज्ञानिक लगे. 1980 में विश्व में खेती पर आधारित आबादी की संख्या गैर-खेतिहर यानी उद्योगों पर आधारित आबादी के बराबर थी. रिपोर्ट के अनुसार 1980 से 2011 के बीच अफ्रीका में खेतिहर आबादी 63 फीसदी बढ़ी, जबकि गैर-खेतिहर आबादी में 221 फीसदी की वृद्धि हुई. एशिया में खेतिहर आबादी तीन दशकों के बीच 20 फीसदी बढ़ी, जबकि गैर-खेतिहर आबादी 134 फीसदी बढ़ी. बात को बढ़ा-चढ़ा कर कहने के लिए पैमाना प्रतिशत का बनाया गया है.
खेती पर आधारित वैश्विक आबादी की घट-बढ़ के रुझानों का जिक्र करते हुए रिपोर्ट खुद कहती है कि बीते तीन दशकों में दुनिया की कुल आबादी में खेती पर आधारित आबादी का प्रतिशत घटा है, परंतु तुलनात्मक रूप से खेतिहर आबादी की कुल संख्या में वृद्धि हुई है और इसमें सबसे ज्यादा योगदान एशियाइ तथा अफ्रीकी देशों का है. 1980 में दुनिया में खेती पर आधारित आबादी की तादाद 2 अरब 20 करोड़ थी जो साल 2011 में 2 अरब 60 करोड़ हो गयी है. खेती से जीविका चलानेवाले लोग तीस वर्षो में 40 करोड़ बढ़ गये, जिसमें सबसे ज्यादा योगदान भारत का रहा- रिपोर्ट को यह बात सबसे ज्यादा उल्लेखनीय लगी है. रिपोर्ट को लगता है कि शहरों की ओर बढ़ता पलायन और खेती की स्थितियों में आया सुधार यूरोप और अमेरिका के देशों में खेती पर आश्रित आबादी की संख्या में आयी कमी का प्रमुख कारक है.
एशिया और अफ्रीका के खेत कारखानों में क्यों नहीं बदल जाते, खेती इन महादेशों में खुद एक उद्योग में क्यों नहीं तब्दील हो जाती, किसान निवेशकों की तरह क्यों नहीं सोचते- वल्र्ड वॉच इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट का छुपा हुआ प्रश्न असल में यह है! समूचा भविष्य पूंजी का है और मनुष्यता पूंजी की चेरी है, जब कोई यह मान लेता है तो चीजों को देखने का उसका चश्मा भी बदल जाता है. फिर क्या अचरज कि कोई खेत की पहचान उस जगह के रूप में करे, जहां अनाज नहीं रुपये उगते हैं. यह समझ रोटी को भूख मिटाने से ज्यादा बाजार बढ़ाने की चीज मानती है. वल्र्ड वॉच रिपोर्ट भी ऐसा ही चश्मा पहन कर लिखी गयी है.
हाल ही में अमेरिका में खेती-बाड़ी से संबंधित जनगणना के आंकड़े जारी हुए हैं. लिखा है कि 2012 में अमेरिकी में मात्र 20 लाख खेत (फार्म) रह गये हैं और 2007 की तुलना में खेतों की संख्या में 4 प्रतिशत की कमी आयी है. वहां उपज और पशुधन का मूल्य बीते पांच वर्षो में बढ़ा है, लेकिन खेतों की संख्या लगातार घटी है. खेती करनेवालों की उम्र लगातार बढ़ रही है यानी खेती में नौजवान आबादी शामिल नहीं हो रही. इन तथ्यों के आधार पर कुछ अमेरिकी विद्वान सोचने लगे हैं कि आनेवाले समय में अमेरिका के बुढ़ाते हुए किसान खेती करने लायक नहीं रह जायेंगे और ना ही खेत बचेंगे, तब अमेरिका में खेती कौन करेगा और लोग खायेंगे क्या?
कुछ यही हाल भारत का भी है. खेती पर आधारित गतिविधियों पर आश्रित श्रमशक्ति का आकार भारत में पिछले एक दशक में 11 प्रतिशत कम हुआ है, जबकि सेवा-क्षेत्र और विनिर्माण-क्षेत्र में इसी अवधि में लोगों की संख्या में हैरतअंगेज वृद्धि हुई है. एसोचैम के अनुसार 1999-2000 में खेती और इससे जुड़ी गतिविधियों पर जीविका के लिए आश्रितों की संख्या 60 प्रतिशत (कुल 26 करोड़ 10 लाख) थी, जो साल 2011-12 में घट कर 49 प्रतिशत(23 करोड़ 10 लाख) हो गयी. नयी जनगणना में माना गया है कि एक दशक में देश में 90 लाख लोगों ने किसानी छोड़ी है. खेतों के आकार भारत में भी सिकुड़ रहे हैं.
खेतों का कम होना और किसान का घटना सिर्फ आर्थिक प्रश्न नहीं, सभ्यतागत प्रश्न भी है. यह एक सभ्यता के धीमे अंत की सूचना है. यह रिकॉर्ड ऊंचाई छूते अन्न उत्पादन पर इतराने का नहीं, बल्कि एक सभ्यता के भावी विनाश की आशंका पर शोक मनाने का वक्त है. 16वीं लोकसभा के चुनाव की रणभेरी ज्यों-ज्यों तेज हो रही है, विकास का मुहावरा मुंहजोर हो रहा है. किसानी की सभ्यता को बचाने का लक्ष्य आगे रख कर विकास होता है या नहीं, यह दलों के घोषणापत्र में दिखेगा. प्रश्न यह है कि क्या पार्टियां 45 करोड़ मतदाताओं की सभ्यता को बचाने का संकल्प करके भारत के नवनिर्माण का विचार गढ़ पाती हैं या नहीं?