अशोक कुमार पांडेय
कवि एवं चिंतक
झक सफेद कपड़ों व सूट-बूट से सजे रहनेवाले संसद भवन के सामने 11 अप्रैल को एक अजीब नजारा दिखा, जब तमिलनाडु से आये किसानों ने अपने मैले-कुचैले कपड़े भी उतार दिये और अपनी मांगों के समर्थन में नग्न प्रदर्शन किया. तमिलनाडु के प्रतिष्ठित वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता पी आयकन्नु के नेतृत्व में ये किसान पिछले 25 दिनों से कर्जमाफी, कावेरी मैनेजमेंट बोर्ड की स्थापना और अन्य मुद्दों को लेकर धरने पर हैं. पिछले 140 सालों के सबसे भयानक सूखे से गुजर रहे तमिलनाडु में कुछ ही महीनों में सौ से ज्यादा किसानों ने आत्महत्याएं की हैं. जरूरी कदम नहीं उठाये गये, तो तमिलनाडु में भी विदर्भ जैसी हालत बन जाने का भय है.
नब्बे के दशक में कॉरपोरेट्स को कृषि क्षेत्र में प्रवेश देने के साथ ही किसानों की आत्महत्याओं का जो दौर शुरू हुआ, वह थम नहीं रहा. इसका सबसे पहला प्रभाव पड़ा कपास उत्पादक किसानों पर. एक तरफ आयात पर ढेरों छूटें और दूसरी तरफ सब्सिडी कम करने से लगातार बढ़ती उत्पादन लागत ने कपास को यों भी अलाभकारी फसल में तब्दील कर दिया और उस पर से जब मौसम की मार पड़ी, तो किसान बैंकों से लिये गये ऋण न चुका पाने की स्थिति में अपमान और असहायता से बचने के लिए सल्फास की शरण में गये.
एक अनुमान के मुताबिक, 1995 से अब तक कोई तीन लाख दस हजार से अधिक कपास किसानों ने आत्महत्या का रास्ता चुना है. साल 2014 में देश के ज्यादातर हिस्सों से किसानों की खुदकुशी की खबरें आयीं. सबसे भयावह स्थिति मध्य प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, तेलंगाना और छत्तीसगढ़ की रही, तो तमिलनाडु में भी इसी साल 68 किसानों ने आत्महत्या की. दूसरी तरफ मोनसेंटो जैसी कॉरपोरेट कंपनी अगले कुछ सालों में मौसमी स्थितियों और इंश्योरेंस प्रीमियम को आपस में जोड़ने से एक खरब अमेरिकी डॉलर से अधिक की कमाई की उम्मीद कर रही है! जाहिर है, आनेवाले समय में कृषि क्षेत्र में लागत बढ़ेगी, जिसके चलते ऋण का संकट और गहरा होगा, और यह संकट केवल कपास तक महदूद नहीं है.
कभी भारतीय किसान संघ और भाजपा से जुड़े रहे पी आयकन्नु ने न केवल तमिलनाडु में किसानों के अनेक आंदोलन संगठित किये हैं, बल्कि उनके पक्ष में अनेक कानूनी लड़ाइयां भी लड़ी हैं. ऐसी ही एक याचिका पर तमिलनाडु हाइकोर्ट ने अपने फैसले में सभी किसानों के ऋण तुरंत माफ किये जाने का निर्देश दिया और आयकन्नु को तमिलनाडु के बेआवाज किसान समुदाय की आवाज उठाने के लिए साधुवाद भी दिया, लेकिन राज्य और केंद्र सरकारें इसे लागू करने में आनाकानी कर रही हैं. आयकन्नु बताते हैं कि किसानों की सबसे बड़ी शिकायत सरकार द्वारा निर्धारित किये जानेवाले न्यूनतम समर्थन मूल्यों से हैं. अगर ये मूल्य उत्पादन लागत से 50 प्रतिशत अधिक पर लागू किये जायें, तो किसानों को ऋणमाफी की जरूरत ही नहीं रहेगी.
इन किसानों ने विरोध स्वरूप अपने मृत साथियों के कंकाल अपने साथ रखे हैं. प्रधानमंत्री के पुतले के सामने खून चढ़ा कर खामोश बैठे दामोदरन की ओर इशारा करते हुए एक किसान ने बताया कि उनके गले में जिस कंकाल की माला है, वह उनकी पत्नी का है. यह सब देख, ऐसा लगता है कि कभी अन्नदाता कहे जानेवाले किसानों की आवाज उठानेवाला अब कोई नहीं रहा.
देश भर में जिस तरह की कॉरपोरेट लूट बढ़ी है, उसमें नीति आयोग जैसी संस्था भी अब उन्हीं कॉरपोरेट्स को सलाहकार बना रही है. सारा जोर किसी तरह से उनके लाभ को बढ़ाने पर है. किसानों की आय दोगुनी करने के संकल्पों के साथ जारी ये नीतियां साफ तौर पर इनके निहितार्थों पर सवाल उठाती हैं. हालात ऐसे हो रहे हैं कि कभी किसानों द्वारा अपनी उपज नष्ट किये जाने की खबर मिलती है, तो कभी प्याज या टमाटर के किसानों से बीस पैसे किलो खरीदे जाने की.
बीटी कॉटन के आने के बाद जो एकाधिकार मोनसेंटो को मिला है, उसके बाद कभी चांदी की कटोरी कहे जानेवाले इलाके कब्रगाहों में तब्दील होने को मजबूर हैं. देशी-विदेशी पूंजीपतियों को हरचंद सहायता मुहैया करानेवाली सरकारें जब किसानों का मामला आने पर धन की कमी और संसाधनों के अनार्थिक प्रयोग का रोना रोती हैं, तो विकास की इस नयी परिभाषा के असली मानी समझ आते हैं, जिसमें आर्थिक पिरामिड के सबसे ऊंचे स्तरों पर बैठे कोई साठ-सत्तर धन्नासेठों की आय दिन-दोगुनी और रात-चौगुनी बढ़ रही है और बेहतर सैलरी की मांग करनेवाले मारुति के मजदूर जेल में ठूंस दिये जाते हैं.
फीस बढ़ाने का विरोध करनेवाले पंजाब यूनिवर्सिटी के छात्रों की बर्बर पिटाई के बाद उन पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा ठोंक दिया जाता है और जंतर-मंतर पर सड़क पर सांभर-चावल खाते किसानों की बात सुनने के लिए कोई नेता कोई अधिकारी सौ मीटर की दूरी तय करने की जरूरत महसूस नहीं करता.