चुनाव के दिन नजदीक आ गये हैं. सभी दल अपने-अपने उम्मीदवार तय कर रहे हैं. साथ ही, वे जोर-शोर से अपने प्रचार में लगे हैं और विरोधी दलों पर भिन्न-भिन्न प्रकार से लांछन भी लगा रहे हैं. लेकिन इन सबके बीच दल बदलने का भी कार्यक्र म जोर-शोर से चल रहा है. प्राय: देखने को मिल रहा है कि वर्षो से एक ही दल की सेवा कर रहे नेता, किसी न किसी बहाने से अपने दल को छोड़ कर दूसरे दल में जा रहे हैं. एक दल से दूसरे दल में जाना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन यह सब ठीक चुनाव के समय ही ज्यादा क्यों होता है
जो नेता दल छोड़ता है, वह यही कह कर जाता है कि दल का चरित्र उजागर हो गया है. ऐसे में इन नेताओं से सवाल यह है कि नेताजी क्या इतने सालों से जब आप अपने दल की सेवा कर रहे थे, तब आपको दल का चरित्र नहीं दिख रहा था. जब आपको टिकट नहीं मिला, तभी आपको अपने दल का चरित्र दिखायी दिया? ये वो महारथी हैं जो किसी भी स्थिति में अपने दल के साथ रहते थे, भले ही उस दल में कोई कमी साक्षात दिख रही हो. अपने हर वक्तव्य में दल और उसकी विचारधारा को सर्वश्रेष्ठ बतानेवाले ये नेता अचानक से कोई ना कोई कारण बता कर अपना दल छोड़कर जा रहे हैं. कुछ नेताओं की नाराजगी टिकट ना मिलने की दिखती है, तो कुछ ऐसे दल की तरफ भाग रहे हैं जिसकी हवा ज्यादा दिख रही है. ऐसे में ऐसे अति-महत्वाकांक्षी और अवसरवादी नेताओं पर कैसे विश्वास किया जा सकता है कि ये इस बार जिस दल की सेवा में गये हैं, उस दल की सेवा वो उस दल की विचारधारा से प्रभावित होकर ही करने गये हैं और अगर वहां भी उनको टिकट नहीं मिला या उनकी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति नहीं हुई तो भी उसी दल के साथ जुड़े रहेंगे.
सौरभ मिश्र, बोकारो स्टील सिटी