भारतीय समाज में रंगभेद
आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक प्रभात खबर यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि ऐसे समय में जब देश रंगभेद, नस्लभेद के खिलाफ संघर्ष के सबसे बड़े प्रणेता महात्मा गांधी को चंपारण यात्रा के संदर्भ में याद कर उन्हें श्रद्धांजलि दे रहा है, भारत में रंगभेद, नस्लभेद की घटनाओं और बयानों ने जता दिया है […]
आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक
प्रभात खबर
यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि ऐसे समय में जब देश रंगभेद, नस्लभेद के खिलाफ संघर्ष के सबसे बड़े प्रणेता महात्मा गांधी को चंपारण यात्रा के संदर्भ में याद कर उन्हें श्रद्धांजलि दे रहा है, भारत में रंगभेद, नस्लभेद की घटनाओं और बयानों ने जता दिया है कि देश में इस रोग की जड़ें गहरी हैं और यह अभी ठीक नहीं हुआ है. इसके तत्व भारतीय समाज में अब भी गहरे से मौजूद हैं.
गांधी वकालत की पढ़ाई पूरी करने के बाद दक्षिण अफ्रीका गये और रंगभेद के खिलाफ उनका संघर्ष वहीं से शुरू हुआ. सौ साल बाद यहां भारत में अफ्रीकी लोग रंगभेद और नस्लभेद की शिकायत कर रहे हैं. दूसरी ओर भारतीय नेता रंग को लेकर अन्य राज्यों के लोगों की तौहीन कर रहे हैं. लगातार कई घटनाओं ने पूरे देश में रंगभेद और नस्लभेद के रोग को उभारकर सामने ला दिया है.
दक्षिण अफ्रीका के एक शहर पीटरमारित्सबर्ग के रेलवे स्टेशन पर सन् 1893 में महात्मा गांधी के खिलाफ नस्लभेद की घटना घटित हुई थी. इसी शहर के रेलवे स्टेशन पर एक गोरे सहयात्री ने नस्लभेद के कारण मोहन दास करमचंद गांधी को धक्के देकर ट्रेन से बाहर फेंक दिया था. इसी घटना ने मोहन दास करमचंद गांधी को आगे चलकर महात्मा गांधी बना दिया. यही घटना थी, जिसने गांधी के जीवन को परिवर्तित किया और नस्लभेद के खिलाफ संघर्ष के लिए प्रेरित किया.
एक दूसरी घटना देखें. हालांकि बॉलीवुड अभिनेताओं से देश की जनता रंगभेद जैसी बहस में हस्तक्षेप की उम्मीद नहीं करती. और अभय देओल जैसे अभिनेता से तो कतई नहीं. लेकिन वे छुपे रुस्तम निकले. पिछले दिनों अभय देओल ने रंगभेद को लेकर चल रही दबी-छुपी बहस को सार्वजनिक मंच पर ला दिया और अपने साथी बॉलीवुड कलाकारों को ही कठघरे में खड़ा कर दिया.
पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत में फेयरनेस क्रीम की बिक्री असाधारण रूप से बढ़ी है क्योंकि यह क्रीम काले या सांवले व्यक्ति को गोरा बना देने का दावा करती है. यह देखा गया है कि केवल लड़कियों में गोरा बनने की ललक नहीं है, मर्द भी इसमें पीछे नहीं हैं. इन गोरेपन की क्रीमों को बड़े बॉलीवुड अभिनेता प्रचार प्रसार कर रहे हैं. यह और कुछ नहीं हमारे रंगभेदी रवैये का एक संकेत मात्र है.
अभय देओल की टिप्पणियों को भाजपा सांसद तरुण विजय के उस बयान से जोड़कर भी देखा जा रहा है, जिसमें उन्होंने एक विदेशी चैनल के साथ चर्चा में कहा था- अगर हम नस्लवादी होते, तो हमारे यहां पूरा दक्षिण भारत कैसे होता… हम उनके साथ कैसे रहते. हमारे चारों तरफ सांवले लोग रहते हैं. इस बयान पर विवाद के बाद उन्हें माफी मांगनी पड़ी थी.
उनके बयान से भी हमारे समाज में फैले रंगभेद की एक झलक मिलती है कि गोरा होना श्रेष्ठता की निशानी है और सांवला या काला व्यक्ति दोयम दर्जे का है.
दरअसल, नस्लभेद और रंगभेद की यह बहस राजधानी दिल्ली से सटे ग्रेटर नोएडा में नाइजीरियाई छात्रों को निशाना बनाने से हुई थी. नाइजीरियाई छात्रों को स्थानीय लोगों ने जमकर पीटा था. दरअसल ऐसी धारणा बना दी गयी है कि सभी अश्वेत ड्रग्स का धंधा करते हैं. इसका खामियाजा नाइजीरियाई छात्रों को भुगतना पड़ा. बाद में अफ्रीकी मूल के अन्य लोग भी अलग अलग घटनाओं में निशाना बनने लगे. इन हमलों के बाद अफ्रीकी देशों के राजदूतों इन घटनाओं को रंगभेद बताया. उनका आरोप था कि भारत सरकार ने इसके खिलाफ कोई कड़ा और संतोषजनक कदम नहीं उठाया.
यह अजीब तथ्य है कि सरकारी स्तर पर अफ्रीकी देशों से भारत के रिश्ते अत्यंत घनिष्ठ हैं, लेकिन भारतीय जनता का अश्वेत लोगों से कोई लगाव नहीं है. राजधानी दिल्ली और कई अन्य शहरों में अफ्रीकी देशों के छात्र काफी बड़ी संख्या में पढ़ने आते हैं. यह बात सभी जानते हैं कि अक्सर ऑटोरिक्शा या टैक्सी वाले, यहां तक कि आम जन उन्हें ‘कालू’ कहकर बुलाते हैं और हिकारत की नजर से देखते हैं. लेकिन ऐसा कहने से उन्हें कोई नहीं रोकता. उनका काला रंग इस प्रकार के अपमानजनक बर्ताव का मूल कारण होता है. अपने ही पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों को नाक-नक्श भिन्न होने के कारण भेदभाव और अपमान का सामना करना पड़ता है.
मेरा मानना है कि रोग का उपचार तभी संभव है जब उसे स्वीकार कर लिया जाये. हमको पहले यह स्वीकार करना होगा कि भारत एक रंगभेदी समाज है. गोरे रंग की स्वीकार्यता यहां है, लेकिन काले रंग के लोगों के लिए समाज में हिकारत का भाव है. अमूमन सभी भारतीय परिवार गोरी बहू चाहते हैं.
अगर आपने अखबारों के वैवाहिक विज्ञापनों पर गौर किया हो तो आप पायेंगे कि शायद ही उसमें एक भी ऐसा व्यक्ति और परिवार हो जो सांवली वधू चाहता हो. यह रंगभेद नहीं तो और क्या है. मैं जब बीबीसी में था तो कई वर्ष ब्रिटेन में रहने और भारतवंशी समाज को करीब से देखने और समझने का मौका मिला. मैंने पाया कि वहां के भी भारतीय समाज में रंगभेद रचा-बसा है. वहां गोरी बहू तो स्वीकार्य है, लेकिन अश्वेत बहू उन्हें भी स्वीकार नहीं होती जबकि अश्वेत उस समाज के अभिन्न अंग हैं.
यह एक सामाजिक समस्या है और भारतीय समाज को ही इसका हल निकालना होगा. इसके लिए यदि सामाजिक आंदोलन की आवश्यकता हो तो वह भी चलना चाहिए. सरकारें रंगभेद और नस्लभेद के खिलाफ लोगों को जागरूक करने में मदद कर सकती हैं, लोगों में चेतना पैदा कर सकती हैं. यदि हम ऐसा कर सके, तो एक ऐसा देश बना सकेंगे जिसमें रंगभेद-नस्लभेद नहीं होगा और जिसके द्वार सभी के लिए खुले रहेंगे. नस्लवाद के खिलाफ अलख जगाने वाले महात्मा गांधी को यह सच्ची श्रद्धांजलि होगी.