शेयर बाजार इस हफ्ते उछल कर एक नयी ऊंचाई पर पहुंच गया है. यह उछाल चुनावी तैयारियों के बीच आया है, इसलिए इसके तात्कालिक कारण चुनावी परिदृश्य में ही खोजे जा रहे हैं. फरवरी में अमेरिकी राजदूत ने नरेंद्र मोदी से मुलाकात की थी. इसमें मोदी ने अपनी छवि के अनुरूप भारत में विदेशी निवेश के बढ़वार के प्रति सकारात्मक संकेत दिये.
इसके बाद अमेरिकी अखबारों में एक आकलन छपा, जिसमें भाजपा और मोदी की दिखायी गयी. इस बीच देश के खबरिया चैनलों ने भी चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में भाजपा और मोदी की बढ़त बतायी. ऐसे में इस उछाल को लेकर कहा जा रहा है कि विदेशी निवेशकों का भारतीय बाजार पर भरोसा बढ़ा है. इसीलिए उन्होंने हफ्ते भर में करीब सवा दो अरब डॉलर के शेयर खरीदे हैं और इससे डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत में भी सुधार हुआ है. उधर, कुछ विश्लेषक इसे यूपीए सरकार की नीतियों का परिणाम बता रहे हैं.
दिसंबर, 2013 तक भारत में विदेशी संस्थागत निवेश 6 अरब डॉलर का हुआ था, जो एक साल पहले के 70 लाख डॉलर से बहुत अधिक है. कहा जा सकता है कि दिसंबर के आखिर से ही रुपये की कीमत और शेयर बाजार में उछाल की स्थितियां बन रही थीं. इस बारे में प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री उम्मीद भी जता चुके थे. चालू खाते का घाटा 2012 के मुकाबले 2013 के अक्तूबर-दिसंबर में उल्लेखनीय ढंग से कम करने (5.2 से 4.2 अरब) में सफलता मिली और क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों की नजर में भारतीय बाजार की साख बहाल हुई.
कुछ योगदान लेखानुदान में की गयी उद्योग हितैषी छूट का भी माना जा सकता है. बहरहाल, यदि भाजपा की भावी सरकार पर विदेशी निवेशकों का भरोसा बनाम मनमोहन सरकार की नीतियों के परिणाम के जुमले से बाहर सोचें तो नजर आयेगा कि शेयर बाजार में आयी उछाल को भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थायी बढ़त का पैमाना नहीं माना जा सकता, क्योंकि इस उछाल का रिश्ता अमेरिकी अर्थव्यवस्था के रुझानों पर निर्भर है और ये रुझान भारत से तय नहीं होते. पिछला अनुभव यही कहता है कि उड़ंता विदेशी पूंजी के दम पर आया हर उछाल आखिरकार एक बुलबुला साबित होता है. इसलिए, छोटे निवेशकों को बहुत फूंक-फूंक कर कदम उठाने की जरूरत है.