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वीआइपी कल्चर पर चोट

लाल, पीली और नीली बत्ती को पूरी तरह से हटाने की घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह बात लोकतंत्र के बुनियादी मूल्य को रेखांकित करती है कि हर नागरिक विशिष्ट व्यक्ति है. मंत्रियों और अधिकारियों के कारों पर लगी रंगीन बत्ती न सिर्फ उनकी विशिष्टता का सूचक होती थी, बल्कि यह कायदे-कानूनों की […]

लाल, पीली और नीली बत्ती को पूरी तरह से हटाने की घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह बात लोकतंत्र के बुनियादी मूल्य को रेखांकित करती है कि हर नागरिक विशिष्ट व्यक्ति है. मंत्रियों और अधिकारियों के कारों पर लगी रंगीन बत्ती न सिर्फ उनकी विशिष्टता का सूचक होती थी, बल्कि यह कायदे-कानूनों की धज्जियां उड़ाने का जरिया भी होती थी.

इसी वजह से चमकदार बत्तियों और उनके साथ बजते सायरनों को ‘नव-सामंतवाद’ का प्रतीक भी कहा जाता है. अक्सर ऐसे लोग भी वाहनों में बत्ती और सायरन लगाते हैं, जिन्हें कानूनी अधिकार नहीं है. इन्हें हटाने का फैसला सराहनीय है. लेकिन, सवाल है कि हमारे सत्ता तंत्र और समाज में गहरे तक पैठ बना चुके वीआइपी कल्चर का खात्मा क्या इस एक पहल से हो जायेगा. शायद नहीं. बड़े ओहदे से हट जाने या सेवानिवृत्त हो जाने के बाद लोग पदनाम के साथ ‘पूर्व’ लिख कर गाड़ियों पर टांकते हैं. शहरों और कस्बों में ऐसी कारें भी दिख जाती हैं, जिन पर ‘विधायक पुत्र’ जैसे स्टिकर चिपके होते हैं.

टोल प्लाजा, पार्किंग और ट्रैफिक में रोके जाने पर किसी बड़े नेता या अधिकारी का संबंधी होने की धौंस दिखाना भी आम है. सरकारी गाड़ियों का परिवारजन और रिश्तेदार धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हैं. बारात और उत्सव में भी बत्ती चमकाना और सायरन का शोर करना विशिष्टों का शगल है. सड़कों पर जब कोई वीआइपी गुजरता है, तो बहुधा आम वाहनों के साथ मरीज ले जाते एंबुलेंस को रोक कर उसे रास्ता दिया जाता है. अपने कथित सम्मान पर आंच आने पर सांसदों और विधायकों द्वारा मारपीट की घटनाएं भी सुर्खियां बनती रहती हैं.

अनेक ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं, जब किसी माननीय के लिए रेल चलाने या विमान उड़ाने में देरी की गयी है. विशिष्ट लोगों की सुरक्षा के लिए बड़ी संख्या में पुलिस बंदोबस्त का क्या कहना, यहां तक कि एक्स, वाइ और जेड श्रेणी की विशिष्ट सुरक्षा को भी मनमाने तरीके से मुहैया कराया जाता है, जबकि हर एक लाख भारतीयों की सुरक्षा पर महज 137 पुलिसकर्मी हैं. वीआइपी कल्चर को पुख्ता करने में नेताओं और अधिकारियों के साथ समाज की भी भूमिका रही है. बड़े लोगों से सिफारिश करा कर अपना काम निकालने का जुगाड़ करना तथा सत्ता के सामने झुकना जैसी प्रवृत्तियों ने भी ‘नव-सामंतवाद’ को मजबूती दी है.

रंगीन बत्तियां हटा कर गैर-लोकतांत्रिक तौर-तरीकों पर जरूरी चोट तो की गयी है, पर सबसे जरूरी है शासन-प्रशासन के आला लोगों और आम नागरिकों में समानता को लेकर सकारात्मक सोच पैदा हो. मौजूदा फैसले ने इस सोच के लिए एक जमीन बनायी है, जिस पर हम अपने लोकतंत्र को दृढ़ बना सकते हैं.

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