!!प्रो योगेंद्र यादव!!
राष्ट्रीय अध्यक्ष, स्वराज इंडिया
पहलू खान की अंधी मां अपने इकलौते बेटे को याद करके बिलख-बिलख कर रो रही थी. वहां सांत्वना के शब्द बेमानी थे. मेरा मन अस्सी साल पुरानी घटना को याद कर रहा था, जब शायद पहलू खान की मां पैदा हुई होंगी. सन् 1936 में हिसार में बकर-ईद पर गाय की बलि को लेकर दंगा हुआ था. उस दंगे में मेरे दादाजी मास्टर राम सिंह का कत्ल हुआ था. पहलू की मां का हाथ पकड़े मेरे मन में फैज अहमद फैज की पंक्तियां गूंज रही थीं: खून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद.
मैं गौरक्षा का समर्थक हूं. हमारे यहां बहुसंख्यक समाज गाय को पवित्र मानता है. वैदिक काल में भले ही गौमांस का उपभोग होता हो, लेकिन आज एक औसत हिंदू का धार्मिक संस्कार उसे गौमांस खाने से रोकता है. मांस खानेवाले हिंदू भी कुछ अपवाद छोड़ कर गाय का मांस खाने से परहेज करते हैं.यूं भी कई धार्मिक संस्कारों की तरह गौरक्षा का विचार अपने आप में एक सुंदर विचार है. मानवीय संवेदना को केवल अपनी और मानव जाति की रक्षा की बजाय जीव मात्र की रक्षा से जोड़ना निस्संदेह एक श्रेष्ठ विचार है. ऐसे में अगर गाय इस आदर्श का प्रतीक बनती है, तो इससे किसी को क्या आपत्ति हो सकती है?
अगर हिंदू का धर्म उसे गौहत्या से रोकता है, तो मुसलमान का धर्म भी उसे गाय को मारने या खाने का निर्देश नहीं देता. कुरान शरीफ का दूसरा सूरा ‘गाय’ से जुड़े किस्सों पर आधारित है.बेशक, इसलाम धर्म में गौहत्या और गौमांस की पूरी मनाही नहीं है, लेकिन कुरान शरीफ का निर्देश प्रतिबंध की दिशा में ही है- दूधारी गाय, खेती में प्रयोग की जानेवाली गाय, छोटे बछड़े और बूढ़ी गाय की बलि देने पर पाबंदी है. और चूंकि पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब ने गाय पाली थी, इसलिए गाय पालने को ‘सुन्नत’ यानी मुसलमानों के लिए धर्मोपयुक्त काम माना गया है. और सच यह है कि पहलू खान जैसे गांव में बसनेवाले मुसलमान किसान सदियों से गौपालक रहे हैं. आज भी बाकी हरियाणा की तुलना में मुसलिम बाहुल्य वाले मेवात जिले में गायें ज्यादा पाली जाती हैं.
यानी गौरक्षा के सवाल पर हिंदू और मुसलमान को एक-दूसरे के खिलाफ खड़े होना जरूरी नहीं है.इसी समझ के आधार पर भारत के संविधान में गौरक्षा को नीति निर्देशक सिद्धांत बनाया गया. अगर ईमानदार कोशिश हो, तो गौरक्षा के पक्ष में एक राष्ट्रीय सहमति बन सकती है. लेकिन, इसके लिए गौरक्षा समर्थकों से एक सवाल पूछना होगा: हमें गाय की रक्षा करनी है या इस बहाने मुसलमान का शिकार करना है?
अगर हमारा असली उद्देश्य गौ रक्षा है, तो हमें एक कड़वे सच का सामना करना होगा. आज गाय को सबसे बड़ा खतरा उनसे नहीं है, जो गौमांस खाते हैं. बल्कि उनसे है, जो गाय के फोटो की पूजा करते हैं. कड़वा सच यह है कि गाय के बारे में हिंदू समाज का रवैया पाखंड से भरा हुआ है.कहने के लिए हिंदू समाज गाय को माता कहता है, उसे तिलक लगाता है और उसके नाम पर झगड़ा करता है. लेकिन, वही हिंदू गाय को बचाने के लिए क्या रत्ती भर भी काम करता है? भारत के हर शहर में हजारों गायें प्लास्टिक और कचरा खाते हुए देखी जा सकती हैं. पिछले साल सूखे के समय लाखों गायें गांव के बाहर घास का दाना खोज रही थीं, तड़प कर मर रही थीं. मैंने उनकी दशा पर लेख लिखे, सबसे गुहार लगायी. लेकिन, हिंदू समाज उनकी रक्षा के लिए नहीं आया.
एक तरफ गौरक्षा का शोर बढ़ रहा है, दूसरी तरफ गौशालाएं बंद हो रही हैं. यानी कि गाय को बचाने की पहली जिम्मेवारी जिस हिंदू समाज की है, वह गाय की इस दशा का पहला अपराधी है. दूसरा कड़वा सच यह है कि गौहत्या के लिए जिम्मेवार सिर्फ वह कसाई नहीं है, जो जानवर को काटता है.गौवध की पहली जिम्मेवारी उस गौपालक की है, जो दूध सूख जाने के बाद गाय को बेच देता है और बछड़ों को छोड़ देता है. इस शृंखला में उसके बाद दलाल आता है, जो गाय को बूचड़खाने तक पहुंचाता है. इस शृंखला के अंत में बड़े-बड़े स्लॉटर हाउस आते हैं, जो हजारों लाखों गायों को काट कर उसका मांस निर्यात करते हैं. और इस काम में अधिकतर लोग हिंदू ही हैं. तीसरा कड़वा सच यह है कि गौहत्या और गौमांस पर कानूनी प्रतिबंध लगाने से कुछ फायदा नहीं होगा. देश के अधिकतर राज्यों में गौहत्या पर प्रतिबंध है, लेकिन गाय को पालने में असमर्थ किसान बूढ़ी गाय को बेचता है.
गौरक्षा की व्यवस्था ठीक किये बिना गौमांस पर प्रतिबंध लगाने का मतलब होगा हर रसोई में पुलिस इंस्पेक्टर की घुसपैठ. तब एख्लाक जैसे कांड हर रोज हुआ करेंगे. अगर गौरक्षा की व्यवस्था करने के बाद गौहत्या के विरुद्ध राष्ट्रीय सहमति बनायी जा सकती है, तो गैर-हिंदू भी इस बात को स्वीकार कर सकते हैं. लेकिन, सबसे जरूरी है कि हिंदू समाज पहले अपनी जिम्मेवारी निभाये.अगर गौरक्षा का संकल्प लेनेवालों की नीयत इस बहाने मुसलमान के शिकार करने का नहीं है, तो उन्हें सबसे पहले हिंदू समाज के पाखंड का पर्दाफाश करना होगा. देश में 25 करोड़ हिंदू परिवार हैं और कुल 12 करोड़ गाय. अगर गाय की पूजा करनेवाला हर परिवार एक-एक गाय को पाल ले और दूध न देने पर भी उसकी सेवा करे, तो गौरक्षा अपने आप हो जायेगी.
आज किसान इस स्थिति में नहीं है कि वह बछड़े और बूढ़ी गाय को पाल सके. जो गाय को पाल नहीं सकता, वह गाय पालने के लिए गौशाला को चंदा दे, तो गाय बच सकती है. अगर सरकारें भी गौशाला को बचाने में योगदान दें, तो उसमें आपत्ति नहीं होनी चाहिए. लेकिन, मुख्य जिम्मेवारी समाज को ही उठानी चाहिए.पहलू खान की मां गौसेवा लिए तैयार है. गौरक्षा के प्रयास में ‘शहीद हुए’ मेरे दादा जी भी जिम्मेवारी को स्वीकार लेते. लेकिन, गाय को सिर्फ टीवी पर देखनेवाले गौरक्षक इससे दूर भागेंगे.