क्या जीने के लिए पीना जरूरी है?

पहले जहां बड़े बाजारों में इक्का-दुक्का अंगरेजी शराब की दुकानें होती थीं, वहीं अब कम आबादीवाले इलाकों में भी अंगरेजी शराब की दुकानें खुल गयी हैं. अब यह आसानी से हर किसी के लिए उपलब्ध है़ नतीजतन, शराब ने युवा वर्ग को अपनी गिरफ्त में ले लिया है और इनका चारित्रिक पतन शुरू हो गया […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 15, 2014 3:56 AM

पहले जहां बड़े बाजारों में इक्का-दुक्का अंगरेजी शराब की दुकानें होती थीं, वहीं अब कम आबादीवाले इलाकों में भी अंगरेजी शराब की दुकानें खुल गयी हैं. अब यह आसानी से हर किसी के लिए उपलब्ध है़ नतीजतन, शराब ने युवा वर्ग को अपनी गिरफ्त में ले लिया है और इनका चारित्रिक पतन शुरू हो गया है. शिक्षित-अनपढ़, रोजगार-बेरोजगार, विवाहित-अविवाहित, ऑटो वाले, छोटे-बड़े काम-धंधेवाले सभी अपनी गाढ़ी कमाई शराब के नशे में झोंक रहे हैं. घर में जरूरी सामान के लिए पैसे हों या नहीं, लेकिन शराब के लिए जेब में पैसे तो होने ही चाहिए!

कई जगह यह उधार में भी मिलने लगी है, जहां महीने भर शराब का सेवन चलता है और महीने में एक बार फुल पेमेंट होता है. नशे की लत के मारे इन युवाओं की स्थिति इतनी बदतर होती जा रही है कि वे नियंत्रण के बाहर होने लगे हैं. पत्नी अपने शराबी पति से परेशान है, मां-बाप शराबी बेटे स़े शराबी को समझाना भी खतरनाक होता है़ पीने के फैशन में शामिल युवाओं का बहाना है, ‘पियोगे नहीं, तो जियोगे कैसे?’. दिन भर के काम के बाद कहने को तो ये शराब पीकर अपनी थकान दूर भगाते हैं, लेकिन इस बहाने वे कितनी शारीरिक , मानसिक और सामाजिक परेशानियों को न्योता देते हैं, इसका अंदाजा शायद इन्हें नहीं होगा. गर्मी की तपिश हो, जाड़े की ठंडक या बरसात की फुहार, नदियों और तालाब के किनारे, चौक-चौराहे इनके ओपेन बार हैं, जहां शाम के समय इनकी महफिलें सजती हैं. जब मौज आया बोतल खोली, दो पैग बनाया और गटागट हलक में उतार लिया. फिर गाली-गलौज करते, डगमगाते कदमों से निकल जाते हैं अगले दिन फिर पीने के लिए. लेकिन क्या जीने के लिए पीना इतना जरूरी है?

प्रदीप कुमार शर्मा, बारीडीह, जमशेदपुर

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