ठोस समझदारी जरूरी

समस्या का समुचित समाधान नहीं हो रहा हो, तो रणनीति पुनर्विचार की मांग करती है. लेकिन, कोई भी पुनर्विचार समस्या के स्वभाव को ध्यान में रख कर होना चाहिए. नक्सली हिंसा किसी एक राज्य तक सीमित नहीं, दस राज्यों के 106 जिले इसकी चपेट में हैं. पिछले साल गृह मंत्रालय ने खुद माना कि 44 […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 10, 2017 5:41 AM
समस्या का समुचित समाधान नहीं हो रहा हो, तो रणनीति पुनर्विचार की मांग करती है. लेकिन, कोई भी पुनर्विचार समस्या के स्वभाव को ध्यान में रख कर होना चाहिए. नक्सली हिंसा किसी एक राज्य तक सीमित नहीं, दस राज्यों के 106 जिले इसकी चपेट में हैं. पिछले साल गृह मंत्रालय ने खुद माना कि 44 जिलों में स्थिति विशेष गंभीर है.
बीते दो दशक में 9,300 नागरिक और 2,700 सुरक्षाकर्मी इस हिंसा की भेंट चढ़ चुके हैं. विस्तार और गंभीरता के लिहाज से नक्सली हिंसा विशेष समाधान की मांग करती है. छत्तीसगढ़ के सुकमा में हुई हालिया घटना के बाद गृह मंत्रालय ने नक्सल प्रभावित इलाकों के लिए नये सिरे से रणनीति की बात तो कही है, पर ऐसा नहीं लगता है कि समस्या के स्वरूप पर पर्याप्त ध्यान दिया गया है.
गृह मंत्री का जोर सुरक्षा तैयारियों को हाइटेक बनाने पर है, उन्होंने नक्सल प्रभावित इलाके के लिए आक्रामक नजरिये की भी पैरोकारी की है, लेकिन इस बार विकास का पहलू उपेक्षित रह गया है. वर्ष 2006 में ऐसे इलाकों के वर्गीकरण के लिए तीन मुख्य आधार माने गये. किसी क्षेत्र-विशेष में हिंसा की तेजी, नक्सली लड़ाकों को हासिल स्थानीय समर्थन और इलाके में हुए विकास-कार्य को देखते हुए स्थिति की संवेदनशीलता का आकलन हुआ, और इसी आधार पर समाधान की रणनीति बनी. केंद्र सरकार ने विशेष प्रशिक्षित सुरक्षा दस्ते और विकास-कार्य की राशि का जिम्मा अपने ऊपर लिया.
नक्सल प्रभावित हर जिले में सालाना 30 करोड़ रुपये की राशि विकास-कार्यों पर अलग से खर्च करने की बात केंद्र ने मानी. इस बार गृहमंत्री ने विकास कार्य पर विशेष जोर नहीं दिया है और राज्यों से उम्मीद बांधी है कि वे नक्सली हिंसा पर अंकुश लगाने की जिम्मेवारी समान रूप से उठायें. केंद्र के सामने तो यह बात बरसों से जाहिर है कि नक्सलियों पर अंकुश लगाने में पर्याप्त सक्षम न होने के कारण राज्यों ने मदद की गुहार बार-बार लगायी है.
सुकमा की घटना से स्पष्ट है कि नक्सली उग्रवादियों ने हथियार और रणनीति के लिहाज से बीते सालों में अपनी ताकत में इजाफा किया है. आर्थिक और प्रशासनिक सीमाओं को देखते हुए राज्य न तो नक्सल ग्रस्त इलाकों के लिए विशेष प्रशिक्षित सुरक्षा दस्ते तैयार कर सकते हैं और न ही इलाके में चल रहे विकास के विशेष उपायों के लिए ही धन जुटाना उनके वश में हैं.
बगैर स्थायी विकास-कार्य के नक्सली अतिवादियों को हासिल स्थानीय समर्थन की काट नहीं की जा सकती. केंद्र सरकार को चाहिए कि नक्सली हिंसा से निबटने की जिम्मेवारी राज्यों पर न डालते हुए वह स्थिति की गंभीरता के अनुरूप ठोस पहल करे.

Next Article

Exit mobile version