एक राजनीतिक चर्चा की झलकियां
पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक दिल्ली की अपेक्षा कोलकाता कम गरम, मगर ज्यादा नम है. वर्ष के वर्तमान वक्त में वहां की गरमी को सुर्ख लाल फूलों से लदे गुलमोहर वृक्षों का साथ मिल जाता है, जिनकी दिल्ली स्थित तनिक सुस्त बिरादरी हमेशा पीछे आना ही पसंद करती है. मैं इस ‘शाश्वत शहर’ […]
पवन के वर्मा
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
दिल्ली की अपेक्षा कोलकाता कम गरम, मगर ज्यादा नम है. वर्ष के वर्तमान वक्त में वहां की गरमी को सुर्ख लाल फूलों से लदे गुलमोहर वृक्षों का साथ मिल जाता है, जिनकी दिल्ली स्थित तनिक सुस्त बिरादरी हमेशा पीछे आना ही पसंद करती है. मैं इस ‘शाश्वत शहर’ में कोलकाता लेडीज स्टडी ग्रुप के न्योते पर पहुंचा था, जो यहां की सर्वाधिक प्रभावशाली महिलाओं की पचास साल पुरानी संस्था है.
मेरे साथ यहां आमंत्रित थे पी चिदंबरम (पीसी) भी, और हमें जिस विषय पर व्याख्यान देने थे, उसका शीर्षक था: भारत की लोकतांत्रिक बिसात पर सकारात्मक संघर्ष.
उतर प्रदेश में भाजपा की जोरदार जीत और भारत की भावी राजनीति के लिए उसके निहितार्थ का सवाल एक से अधिक बार सामने आया. चिदंबरम की दलील थी कि कांग्रेस का घटिया प्रदर्शन संगठनात्मक खामियों का नतीजा था, जिसे पार्टी द्वारा दूर किया ही जाना चाहिए.
अपना पक्ष रखते हुए मैंने कहा कि यूपी के परिणाम ने भाजपा की जीत से ज्यादा विपक्ष की विफलता व्यंजित की. कांग्रेस एवं समाजवादी पार्टी की गांठ अंतिम मिनट में, तदर्थ तथा गैरसंजीदा ढंग से बांधी गयी, जबकि प्रथम चरण के नामांकन शेष होने में केवल कुछ ही दिन बचे थे. तब तक दोनों साझीदार अपने उम्मीदवारों की घोषणा तो कर ही चुके थे, दोनों के अंदरूनी गुटों से विद्रोही प्रत्याशियों की उम्मीदवारियां भी सामने आ चुकी थीं.
न तो गंठबंधन को मतदान स्थलों तक पहुंचाने की जमीनी कवायद की गयी और न ही मतदाताओं तक पहुंच बनाने की कोई व्यवस्थित सूरत अंजाम दी गयी. इस सूरतेहाल का मुकाबला इसके ठीक उलट भाजपा द्वारा पिछले अठारह महीनों के दौरान तफसील से तैयार की गयी चुनावी ब्यूहरचना से था. गैरयादव पिछड़े मतों की तकरीबन पूरी अनदेखी कर दी गयी, जो परिणामतः भाजपा के पाले पड़ गया. इसके अलावा, दोनों साझीदारों द्वारा मायावती को मिलाने की कोई कोशिश तक नहीं की गयी. नतीजा यह रहा कि यह गंठबंधन बिहार में विकसित महागंठबंधन की शक्ल न ले सका.
हमने विपक्षी एकता की संभावनाओं पर भी चर्चा की. क्या क्षेत्रीय क्षत्रपों के सतरंगी समूह के लिए यह संभव होगा कि वे अपने व्यक्तिगत अहम तथा स्थानीय तरजीहों को ताक पर रख भाजपा के विरुद्ध बतौर एक विश्वसनीय विकल्प एकजुट हो सकें? चिदंबरम पूरे आत्मविश्वास से भरे थे. उनका कहना था कि किसी भी जीवंत लोकतंत्र में एक मजबूत विपक्ष जरूरी है.
राष्ट्रीय व्याप्ति रखनेवाली एकमात्र विपक्षी पार्टी के रूप में कांग्रेस की क्या भूमिका होगी? चिदंबरम के बेबाक विचार में, पार्टी को अपनी भूमिका अवश्य ही निभानी चाहिए, पर इसके लिए पहले उसे अहम ढांचागत बदलाव करने होंगे, जो उसके परंपरागत समर्थन आधार को प्रखंड स्तर तक पुनर्जीवित कर सके. उनका मत था कि यह प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है, पर श्रोताओं में कई को इस पर पूरा यकीन नहीं आ सका.मैंने यह जोड़ा कि एक गणितीय समीकरण के रूप में विपक्षी एकता का कोई अर्थ नहीं निकलता है.
प्रभावी होने के लिए इसे भारत के लिए एक विश्वसनीय वैकल्पिक विजन पेश करते हुए यह भी बताना होगा कि क्यों यह विजन भारत के वृहत्तर हित में होगा. सैद्धांतिक स्पष्टता और संगठनात्मक संरचना से रहित एक विखंडित गंठबंधन भारत की जनता को रास नहीं आता. इसका नेतृत्व कौन करेगा, यह प्रश्न तभी लिया जा सकेगा, जब सिद्धांतों तथा संगठन से संबद्ध सवालों के समाधान तलाशे जा चुके हों.
श्रोताओं में एक महिला ने पूछा कि भारतीय राजनीति पर जाति तथा धर्म आधारित पहचान का दबदबा कब तक कायम रहेगा. मैंने कहा कि यह एक जटिल मुद्दा है, जिसका कोई सरल उत्तर नहीं हो सकता. एक स्तर पर, सामाजिक असमानताएं पहचान के इन मुद्दों का पोषण जारी रखती हैं.
पायदानों की एक गहराई से बद्धमूल पारंपरिक व्यवस्था में एक दलित कहां खड़ा है, इसे वह कैसे भूल सकता है- अथवा यह उसे कैसे भूलने दिया जा सकता है? हमारे महानगरों के बहुसांस्कृतिक माहौल में यह कुछ कम नजर आती है, मगर जैसा चिदंबरम ने ठीक ही बताया, भारत के अधिकतर हिस्सों में ऐसी पहचान अभी भी एक बड़ा कारक है. उसी तरह, भाजपा के संरक्षण में वृद्धिशील अति दक्षिणपंथी हिंदू समूहों के परिणामस्वरूप, एक हिंदू से खुद को पहले एक हिंदू और तब एक नागरिक के रूप में देखने को कहा जा रहा है, जबकि एक मुसलिम को अपने ही समुदाय में और भी सीमित हो जाने को बाध्य किया जा रहा है.
इससे भी बढ़ कर, सभी राजनीतिक पार्टियां अपनी चुनावी रणनीतियों की योजना बनाते वक्त पहचान के मुद्दों को लेकर ही चलती हैं.चिदंबरम ने यह बात रखी कि भाजपा हिंदू-हिंदी आधिपत्य थोपना चाहती है. वे राज्यसभा के लिए संविधान द्वारा निर्धारित भूमिका भोथरी करने हेतु गैर-धनविधेयकों को भी धनविधेयकों की श्रेणी में रखने की अधिकारवादी प्रवृत्ति पर चिंतित थे, और इससे मेरी पूरी सहमति थी. जिस तरह गौ-रक्षकों तथा युवा वाहिनी जैसे स्वयंभू समूहों द्वारा कानून हाथों में लिया जा रहा है और कानून के रखवाले खड़े निहार रहे हैं, वह गहरी चिंता की वजह है. कश्मीर की आपात स्थिति पर भी चर्चा हुई. हम दोनों ने ही यह बात रखी कि सुरक्षा के मुद्दे सर्वोपरि हैं, पर कश्मीर में हमारे नागरिकों से किसी किस्म का संवाद आवश्यक है. इस कार्य में श्रीनगर एवं दिल्ली दोनों ही जगहों पर भाजपा की नीतिविहीनता उजागर तथा अबूझ दोनों ही है.
इस स्फूर्तिपूर्ण बहस के दौरान सभाकक्ष में जो एक सवाल अदृश्य मगर साफ तौर पर उपस्थित रहा, वह यह था कि यदि भाजपा की कुछ नीतियों का विरोध किया जाना जरूरी है, तो इस कार्य के लिए विपक्ष किस तरह प्रभावी रूप से एकजुट हो सकेगा? यह प्रश्न पर्याप्त रूप से उत्तरित नहीं ही हो सका, हालांकि मुझे संदेह है कि मैं और चिदंबरम दोनों ही इस विषय से अनभिज्ञ नहीं थे कि क्या किये जाने की जरूरत है.
(अनुवाद: विजय नंदन)