वंदना
पत्रकार, बीबीसी
एडिटोरियल मीटिंग अभी खत्म ही हुई थी कि एक वरिष्ठ साथी ने मुझे कोने में ले जाते हुए कहा- ‘आपकी ब्रा की स्ट्रिप दिख रही है.’ उनके चेहरे पर अजीब सी शिकन और बेचैनी थी. यह एक मीडिया संस्थान में पत्रकारिता में मेरे शुरुआती दिनों की बात है. मैं नयी-नयी रिपोर्टर थी. कुछ नया और अच्छा करने की चाह लिए और उत्साह से भरी हुई मैं उस मीटिंग में गयी थी. यहां मैं यह भी बता दूं कि वहां उस समय और कोई महिला पत्रकार मौजूद नहीं थी. और पूरे ऑफिस में वैसे भी कम ही महिला कर्मचारी थीं.खैर, जैसे ही मेरे सीनियर ने मुझसे दबी आवाज में ब्रा वाली बात कही, मैं एक बार के लिए घबरा सी गयी.
लगा कि कोई बड़ी गलती हो गयी. मैं एकदम चुपचाप खड़ी थी. और मुझसे ज्यादा शायद वह शख्स घबराया हुआ था कि उन्होंने क्या देख लिया. सच कहूं, तो उस समय मुझे कुछ समझ नहीं आया था कि मैं कैसे रिएक्ट करूं, कुछ बोलूं न बोलू, गुस्सा करूं या शिकायत करूं. पढ़ाई के दौरान यूनिवर्सिटी में हमें पत्रकारिता के कई गुर सिखाये गये, कई मोटी-मोटी किताबें मैंने पढ़ी, जर्नलिज्म की इन किताबी बातों का प्रेक्टिकल टेस्ट भी किया. हमें पत्रकारिता और उससे जुड़ी नैतिकता की बातें भी सिखाई गयीं, लेकिन एक नौसिखिये पत्रकार को नौकरी में ऐसे सवाल से भी दो-चार होना पड़ेगा, इसकी तालीम मुझे मेरी यूनिवर्सिटी ने नहीं दी थी. इसलिए शायद जब ये वाक्या हुआ, तो मैं इसका सामना करने के लिए तैयार नहीं थी.
वैसे भी, बचपन से ही लड़कियों को सिखाया जाता है कि अंडरगार्मेंट वगैरह पर बात करना शोभा नहीं देता. मानो वो कोई सीक्रेट हथियार हो, जिसे महिलाओं को उठाना पड़ता है.
और किसी को मालूम नहीं होना चाहिए कि वो हथियार महिला के पास है. और अगर किसी को पता चल गया, तो गजब हो जायेगा. कम-से-कम छोटे कस्बों में तो लड़कियों को इन चीजों का सामना करना पड़ता है. मेरा अपना वास्ता पंजाब के एक छोटे से टाउनशिप से है- नांगल जो भाखड़ा डैम के पास बसा है. और मैंने ये सारी चीजें वहां बड़े होते हुए महसूस की हैं.
घरों में भी तो जब लड़कियों को अंडरगार्मेंट सुखाने होते हैं, तो उन्हें तार पर किन्हीं दूसरे कपड़ों के नीचे सुखाया जाता है, ताकि कहीं कोई देख न ले. जबकि, हाइजीन के हिसाब से इन कपड़ों को हवा और धूप की सबसे ज्यादा जरूरत होती है. पर, कई बड़े शहरों, महानगरों में रहने के बाद अब मुझे लगता है कि ये छोटे या बड़े शहर की बात नहीं है, यह मानसिकता कमो-बेश सभी जगह एक सी है. खैर, उन साहब की बात पर लौटते हैं, जिन्होंने मेरी ब्रा की स्ट्रिप की ओर मेरा ध्यान दिलाया था.
मुझे यह तो याद नहीं कि उस रोज मीटिंग में किस मुद्दे पर चर्चा हो रही थी- जरूर ही भारत की राजनीति या समाज से जुड़ा कोई अहम मसला रहा होगा. लेकिन, मैं सोचती हूं कि उस सुबह की संपादकीय मीटिंग में जब सब देश-दुनिया के संगीन मुद्दों, राजनीति, कूटनीति, कला, खेल पर चर्चा कर रहे थे, तो क्या उस पूरी कवायद में सिर्फ यही बात ध्यान देने लायक रही होगी कि किसी महिला कर्मचारी की कमीज या टॉप के किसी कोने से ब्रा का एक अंश दिख रहा है?
बरसों बाद जब अचानक मुझे यह किस्सा यादा आया, तो एक बार तो मुझे गुस्सा आया. लेकिन सच कहूं, तो कोई हैरानी नहीं हुई. आखिर दशकों से हमारी सामाजिक कंडिशनिंग ही ऐसी बनायी गयी है कि ऐसे मुद्दों को हौवे की तरह पेश किया जाता है. शायद उस व्यक्ति की कंडिशनिंग भी वैसी ही हुई होगी. समाज में जब खुल कर कुछ मुद्दों पर बात करने की अनुमति न हो, ऐसे में जब उन बातों की अभिव्यक्ति होती है, तो कुछ इसी तरह की ‘उलझी’ हुई होती है.
मैं आज इतने बरस बाद सोचती हूं कि अब कोई मुझसे ऐसा कहे तो मेरा रिएक्शन क्या होगा? क्या मैं चुप रह जाऊंगी, जैसे तब रह गयी थी? उस घटना और आज के बीच कई बरसों का फासला है, जिस दौरान बतौर महिला पत्रकार मैं कई तरह के अच्छे-बुरे अनुभवों से गुजरी हूं. इसलिए कह सकती हूं कि आज मेरे साथ कुछ ऐसा हो, तो शायद मैं अपने तरीके से सामने वाले को जवाब दे पाऊंगी, जो उस दिन नहीं दे पायी थी.
और जाते-जाते जिक्र उस घटना का, जिसकी वजह से मुझे यह बरसों पुरना वाक्या याद आया. एक वेबसाइट पर एक लांजरी कंपनी के बारे में रिपोर्ट छपी थी कि कैसे उसने अपने ब्रा ब्रांड का नाम रखा है- अप्रूव्ड बाइ द बूब्स. और अगर ब्रा में किसी को इतनी ही दिलचस्पी है, तो उन अभियानों के बारे में गूगल पर खोज कर पढ़िये, जहां महिलाओं ने ब्रा को विरोध का हथियार बनाया और कई लड़ाइयां भी लड़ी हैं. तब शायद ब्रा ऐसी चीज न लगे, जिसका होना, पहनना और दिखना अपमान या झुंझलाहट की बात है.