आत्मा नहीं है ऑनलाइन में

वीर विनोद छाबड़ा व्यंग्यकार हमने वह जमाना देखा है, जब हर जगह लंबी कतार लगती थी. राशन की दुकान, मिट्टी का तेल, बैंक, पोस्ट ऑफिस, बिजली, पानी, सीवर, हाउस टैक्स, रेल-बस और सिनेमा का टिकट, हर जगह मारा-मारी थी. गरीबों की कतार अलग और सिफारिशियों की अलग. दबंग लोग तो जहां खड़े हुए, वहीं से […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 16, 2017 6:12 AM

वीर विनोद छाबड़ा

व्यंग्यकार

हमने वह जमाना देखा है, जब हर जगह लंबी कतार लगती थी. राशन की दुकान, मिट्टी का तेल, बैंक, पोस्ट ऑफिस, बिजली, पानी, सीवर, हाउस टैक्स, रेल-बस और सिनेमा का टिकट, हर जगह मारा-मारी थी. गरीबों की कतार अलग और सिफारिशियों की अलग. दबंग लोग तो जहां खड़े हुए, वहीं से कतार शुरू हुई.

अब सिस्टम थोड़ा आसान हो गया है. हर तरह के पैसे का लेन-देन ऑनलाइन है. साइबर कैफे जाना भी जरूरी नहीं है. मोबाइल से दो सेकंड में हजारों मील दूर अपने प्रिय को पैसा भेज दो. जनता बड़ी खुश है. समय और ऊर्जा की बचत नहीं, बल्कि महाबचत. सारा काम घर बैठे, लिहाजा भाड़े की भी बचत.

जहां फ्री सामान मिलता है, वहां अब भी कतार लगती है. सरकारी अस्पतालों में दवा लेने की कतार. मुफ्त पूड़ी-कचौड़ी पाने के लिए कतार. हम जैसे रिटायर व निठल्ले लोग भी प्रचुर मात्रा में हैं, जो कतार में लगना पसंद करते हैं. वहां तरह-तरह की बातें होती हैं. देश, समाज और परिवार की. कोई बेटे से दुखी है, तो कोई पत्नी से. कोई पत्नी से, तो कोई पति से.

सास-बहू और ननद-भौजाई के बीच तनातनी के मामले भी हमने वहीं डिस्कस होते-निपटाये जाते देखे हैं. इंसान की फितरत के दर्शन होते हैं. कई के लिए तो समझो यह टैक्स फ्री एंटरटेनमेंट का प्रबंध हो गया.

सोचते हैं यदि ऑनलाइन सिस्टम कंपल्सरी हो गया, तो समस्याओं को सुलझाने का जो मजा रूबरू है, वह ऑनलाइन में कहां मिलेगा? चाय-वाय तो ऑनलाइन आने से रही. हमें तो लोकल काॅल से बेहतर सामने बैठ कर बतियाना अच्छा लगता है. अब तो भीख भी ऑनलाइन होने जा रही है. भिखारी को घर बैठे एक तय राशि मिल जायेगी.हमारे मित्र मिश्रा जी ऑनलाइन शॉपिंग के नंबर वन हिमायती हैं. कहते हैं, सामान बाजार से सस्ता पड़ता है.

क्वॉलिटी भी ए-क्लास. एक दिन बीमार पड़े. अस्पताल में हम उनकी मिजाजपुर्सी को गये. वहां एक सज्जन पहले से मौजूद थे. हमने कहा- भलेमानुस, फोन कर दिये होते, तो हम कार ले आते. मिश्रा जी ने उन सज्जन की ओर इशारा किया. आप मुकंदी लाल हैं. मोहल्ले का काका जनरल स्टोर इन्हीं का है. हमें देखने आये हैं. अपनी कार भी लाये हैं.

हमारी इच्छा हुई कि मिश्रा जी से पूछूं कि ऑनलाइन सिस्टम में कोई ऐसा भी मानवीय गुण मौजूद है कि बीमारी की दशा में आपको अस्पताल देखने आये और फिर घर तक छोड़ने का ऑफर भी दे. मिश्रा जी ने मेरे मनोभावों को पढ़ लिया- हमारी पीढ़ी को आखिरी ही समझो, जो सीधे दुकान से खरीदारी करती है. आनेवाली पीढ़ी को तो यह भी नहीं मालूम होगा कि सब्जी की दुकान कहां है.

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