सेना में भरती की परंपरा
आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया क्या गुजराती शहीद भी होते हैं? उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने यह पूछ कर कुछ लोगों को आहत कर दिया है कि क्या कोई गुजराती भी देश के लिए लड़ा और शहीद हुआ. उन्होंने यह टिप्पणी कश्मीरी सैन्य अधिकारी लेफ्टिनेंट उमर फयाज की घाटी में […]
आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
क्या गुजराती शहीद भी होते हैं? उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने यह पूछ कर कुछ लोगों को आहत कर दिया है कि क्या कोई गुजराती भी देश के लिए लड़ा और शहीद हुआ. उन्होंने यह टिप्पणी कश्मीरी सैन्य अधिकारी लेफ्टिनेंट उमर फयाज की घाटी में हत्या के बाद दी थी.
यादव के सवाल का उत्तर है- कुछ, बहुत अधिक नहीं. और इसका कारण यह है कि बहुत अधिक गुजराती सेना में भर्ती नहीं होते. मैंने कुछ साल पहले इस पर शोध किया था. वर्ष 2009 में 10 लाख से अधिक सैनिकों की संख्या वाली सेना में सिर्फ 719 गुजराती भरती हुए थे. यह एक रिकॉर्ड संख्या थी और गुजरात से कभी भी इतनी तादाद में लोग सेना में नहीं रहे थे. और, यह भी व्यापक स्तर पर चलाये गये जागरूकता अभियान के बाद हुआ था. वर्ष 2007 और 2008 में सेना में भरती होनेवाले गुजरातियों की संख्या महज 230 थी.
गुजरात की आबादी छह करोड़ से ज्यादा है, लेकिन भारतीय सेना में गुजरातियों से अधिक संख्या में विदेशी रहे हैं. यह एक तथ्य है. गुजरात की तुलना में आधे आकार का नेपाल भारत की ओर से लड़ने के लिए गुजरातियों से कई गुना अधिक सैनिक भेजता है. गोरखा रेजिमेंट वास्तव में दुनिया के बेहतरीन लड़ाकू दस्तों में से एक है.
इसके विपरीत गुजरात में सेना में जाने की कोई परंपरा नहीं रही है और यह अपने-आप में कोई अनोखी बात नहीं है. भारत में, और पाकिस्तान में भी, सेना में भरती के लिहाज से विभिन्न क्षेत्रों की हिस्सेदारी का स्तर अलग-अलग है. गालिब ने कहा था कि ‘सौ पुश्त से है पेशा-ए-आबा सिपहगिरी’ (सौ पीढ़ियों से मेरे परिवार का पेशा सेना में जाने का रहा है). कोई भी गुजराती समुदाय यह बात नहीं कह सकता है, पर मराठे, पंजाबी और गोरखा ऐसा कह सकते हैं.
इस बात का लेना-देना बहादुर होने से नहीं है, यह ज्यादातर अवसर और फिर परंपरा से जुड़ा मसला है. अंगरेजों ने अपनी लड़ाकू सेना में उन जगहों से अधिकतर लोगों भरा था, जिन पर उन्होंने पहले कब्जा किया था. इसके कुछ अपवाद भी हैं.
अंगरेजों ने 1857 के विद्रोह, जिसमें बंगाल सेना शामिल थी, के बाद पंजाबी हिंदुओं, मुसलिमों और सिखों की ओर रुख किया. ये पंजाबी अधिकतर जाट थे (पाकिस्तानी सेना में बहुतों ने इसे रेखांकित किया था कि जनरल जिया उल हक गैर-लड़ाकू अराइन समुदाय से आते थे). हालांकि, बड़ी संख्या में भरतियां विद्रोह से बहुत पहले शुरू हो चुकी थीं.
बेंगलुरु में मेरे घर के नजदीक, जो कि एक सैनिक क्षेत्र में है, मद्रास सैपर्स यूनिट को खड़ा किया गया था और इसने 1780 के बाद से भारतीय सेना को लगातार अपनी सेवाएं दी हैं. जब ऐसी लंबी परंपरा स्थापित हो जाती है, तो काम पिता के बाद पुत्र के जिम्मे आता रहता है. यह उन इलाकों में संभव नहीं है जहां भरती का इतिहास नहीं है.
गुजरात में कुछ ‘लड़ाकू’ समुदाय हैं, और उनमें से लोग सेना में भरती होते हैं. इनमें दरबार (राजपूत) समुदाय शामिल हैं, जिनके नाम के साथ जडेजा और सोलंकी जैसे शब्द जुड़े होते हैं. इस लिहाज से शहीदों की संख्या शून्य नहीं हो सकती है, भले ही वे बहुत थोड़े हों.
गुजरात में बहुत कम सैनिक पैदा होने का एक कारण यह भी है कि इस क्षेत्र ने अधिक युद्ध नहीं देखा है. वर्ष 1297 में अलाउद्दीन खिलजी ने गुजरात को जीता था. हालांकि, उसके बाद गुजरात में कुछ लड़ाईयां हुईं, पर उनका बहुत लेना-देना गुजरातियों से नहीं था. अकबर द्वारा अहमदाबाद जीतने के बाद तक उत्तर के मुसलिम आपस में लड़ते रहे थे. उसके बाद गुजरात पर मुगलों का कब्जा रहा. फिर मराठों ने इसके बड़े हिस्से को अपने अधीन कर लिया, और अब भी बड़ौदा पर उनका वर्चस्व है. फिर सूरत से शुरू कर अंगरेजों ने अपना प्रभुत्व कायम किया. इस प्रक्रिया में गुजराती बहुत ही कम शामिल रहे, चाहे वे हिंदू हों या मुसलिम, या फिर पारसी.
सेना में बहुत कम संख्या में गुजरातियों के होने का एक और कारण यह है कि राज्य में व्यापारिक नैतिकता बहुत ताकतवर है. यह व्यावहारिकता पर जोर देती है और इसके लिए सम्मान कोई खास महत्व नहीं रखता है. कई ‘लड़ाकू’ समुदाय इस नैतिकता का उपहास उड़ा सकते हैं, पर इसी की वजह से गुजरात ने अनेक महान व्यावसायी पैदा किया है. सम्मान में अकड़े रहने की जगह समझौता कर पाने की क्षमता का एक नतीजा यह भी है कि गुजरात ने अनेक महान राजनेताओं को भी पैदा किया है. आजादी से पहले भारत के महानतम चार राजनेताओं में से तीन- गांधी, जिन्ना और पटेल- गुजराती थे.
यह संस्कृति कैसे दिलचस्प तरीके से आज अपने को अभिव्यक्त कर रही है, उसका एक उदाहरण मेरी पाटीदार जाति में देखा जा सकता है.
हरियाणा के जाटों के साथ हम उन समुदायों में से हैं, जहां लिंगानुपात देश में सबसे कम है तथा अक्सर स्त्री भ्रूणों का गर्भपात करा दिया जाता है और नवजात बच्चियों का गला घोंट दिया जाता है. यह बहुत ही शर्मनाक है और पाटीदारों को अपने रवैये में सुधार लाना चाहिए. लेकिन, जाटों के विपरीत, पाटीदार ऑनर किलिंग नहीं करते हैं, यानी प्रेमी से शादी करने पर लड़कियों की हत्या नहीं करते हैं. और इसका कारण है कि वाणिज्यिक नैतिकता सम्मान को बहुत मूल्य नहीं देती है.
यादव के बयान से लोगों का आहत होना अपनी जगह सही है, पर यह कुछ तथ्यों और वास्तविकता पर आधारित है. गुजरातियों को लड़ाकू परंपरा की कमी पर शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं है. वे देश को अन्य तरीकों से योगदान देते हैं. और, निश्चित रूप से वे यह दावा कर सकते हैं कि भले ही उन्होंने बहुत शहीद नहीं पैदा किये हों, पर उन्होंने महानतम शहीद- गांधी- को पैदा किया है.